वारसा जलवायु परिवर्तन सम्मेलन FOR UPSC IN HINDI

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कंर्वेशन (यूएनएफसीसीसी) के सदस्य देशों का 19वां सम्मेलन कोप-19 (कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज-COP-19) वारसा में 11-22 नवम्बर, 2013 को संपन्न हुआ। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कवेंशन के 19वें सत्र में विश्व के 190 देशों के प्रतिनिधियों द्वारा वैश्विक जलवायु परिवर्तन की समस्या और उसके समाधान पर चर्चा की गई। इस चर्चा के तहत् वर्ष 2015 तक जलवायु परिवर्तन पर हस्ताक्षर करने की दिशा में प्रगति करना और एक ग्रीन क्लाइमेट फंड (हरित जलवायु कोष) बनाने पर सहमति बनाना जैसे मुख्य बिंदु शामिल थे।

इस सम्मेलन में विकसित व विकासशील देशों के मध्य मतभेद उभरकर पुनः सामने आ गए। प्रथम, विकासशील देश अब ग्रीन फंड में अपनी देनदारी से बचना चाहते हैं। दूसरा, वे ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में अपनी ऐतिहासिक जिम्मेदारी को नहीं मानते। तीसरा, विकासशील देश ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर स्वैच्छिक प्रतिबंधों को स्वीकार करने के लिए सहमत हैं, जबकि बाध्यकारी प्रतिबंधों को वे अपने विकास में बाधक मानते हैं। इन बिंदुओं पर विकासशील देशों व विकसित देशों के मध्य मतभेद विद्यमान रहे। विकासशील देशों का नेतृत्व भारत, चीन तथा ब्राजील ने किया। इसमें चीन सहित समूह-77 के सभी देश एकजुट थे। इस चर्चा के तहत् ही विकासशील देशों का सामूहिक पक्ष रखने के लिए चीन व भारत ने लाइक माइन्डेड डेवलपिंग कन्ट्रीज नामक एक समूह बनाया है। विकसित देशों का नेतृत्व अमेरिका कर रहा है।

Warsaw Climate Change Conference - COP 19

काफी मतभेदों के बावजूद भी वारसा में हुए सम्मेलन में कतिपय महत्वपूर्ण बिन्दुओं पर सहमति बनी, जिनका उल्लेख निम्नवत है-

  • सभी सदस्य देश 2015 के पूर्व ही ग्रीन हाउस गैसों में उत्सर्जन में कटौती के लिए अपने स्वैच्छिक लक्ष्यों को निर्धारित कर सूचित करेंगे। यदि इन स्वैच्छिक घोषणाओं के बाद वैश्विक लक्ष्यों में कोई कमी बाकी रह जाती है, तो 2020 तक उसे पूरा करने हेतु चर्चा तथा तकनीकी उपायों का सहारा लिया जाएगा। 2014 में पेरू में होने वाली 20वें सत्र की चर्चा में जलवायु-परिवर्तन समझौते के ड्राफ्ट पर विचार-विमर्श किया जाएगा तथा 2015 में पेरिस में होने वाले 21वें चक्र की वार्ताओं में इस समझौते की अंतिम रूप दिया जाएगा।
  • सम्मेलन में यह सहमति भी बनी कि जलवायु-परिवर्तन की दृष्टि से संवेदनशील, परंतु दुर्बल जनसंख्या समूहों की मदद देने हेतु एक अलग अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की स्थापना की जाएगी। यह व्यवस्था 2014 में चालू हो जाएगी।
  • हरित जलवायु कोष में योगदान के लिए कतिपय विकसित देशों जैसे-अमेरिका, जापान तथा यूरोपीय संघ के देशों ने अपने स्वैच्छिक योगदान की घोषणा की तथा विकासशील देशों से अपेक्षा की गयी कि वे भी इस कोष में योगदान करेंगे।
  • इसके अलावा विकासशील देशों में, वनों के संरक्षण के लिए विकसित देशों द्वारा विशेष सहायता का आश्वासन दिया गया। उल्लेखनीय है कि वनों के क्षरण से ग्रीन हाउस गैसों में लगभग 20 प्रतिशत की अतिरिक्त वृद्धि हो रही है। 

विकसिततथाविकासशीलदेशोंमेंमतभेद: विगत दो दशकों में हुई जलवायु-परिवर्तन चर्चाओं की प्रकृति का अध्ययन किया जाए तो यह स्पष्ट है कि विरोधी हितों के कारण विकसित और विकासशील देशों में जलवायु परिवर्तन को लेकर गंभीर मतभेद विद्यमान हैं। विकासशील देशों का मानना है कि यदि अब तक ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को देखा जाए, तो स्पष्ट है कि विकसित देश ही इसके लिए ऐतिहासिक रूप से उत्तरदायी हैं। अतः जलवायु-परिवर्तन के उपायों में योगदान में उनकी अहम् जिम्मेदारी है, लेकिन विकसित देश इस तर्क से सहमत नहीं हैं। दूसरा मतभेद विभेदीकृत जिम्मेदारी के सिद्धांत को लेकर है। यूएनएफसीसीसी में इस सिद्धांत को मान्यता दी गयी है। जिसके अंतर्गत जलवायु-परिवर्तन के प्रभावों को रोकने के लिए विकसित देशों की अधिक जिम्मेदारी निर्धारित होती है विकासशील देश प्रतिव्यक्ति कार्बन उत्सर्जन के आंकड़ों को आधार बनाना चाहते हैं, क्योंकि इन देशों में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की मात्र अत्यंत कम है, जबकि विकसित देश किसी देश के कुल कार्बन उत्सर्जन की मात्रा को आधार बनाना चाहते हैं। भारत में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन प्रति वर्ष 1.1 टन है, अमेरिका में 20 टन है; यूरोप के देशों में 10 टन है तथा विश्व का औसत 4 टन है। अतः स्पष्ट है कि प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की दृष्टि से जलवायु-परिवर्तन के लिए विकसित देश अधिक उत्तरदायी हैं। विकासशील देश चाहते हैं कि विकसित देशों द्वारा तकनीकी और आर्थिक संसाधन विकासशील देशों को दिए जाएं, ताकि वे जलवायु के प्रभावों को कम कर सकें, लेकिन विकसित देश इसके लिए तैयार नहीं हैं।

Warsaw Climate Change Conference - COP 19

पिछले सम्मेलनों में यह सहमति बनी थी कि एक ग्रीन क्लाइमेट फंड (हरित जलवायु कोष) की स्थापना की जाएगी जिसमें 2020 तक विकसित देश प्रति वर्ष 100 बिलियन डॉलर की राशि का योगदान करेंगे, जिसका उपयोग विश्व में जलवायु-परिवर्तन के उपायों को अपनाने के लिए किया जाएगा, लेकिन अमेरिका सहित अन्य विकसित देशों ने वारसा में चर्चाओं के दौरान इस प्रकार के योगदान से इनकार कर दिया। विकसित देशों का तर्क है कि भारत, चीन तथा ब्राजील जैसे बड़े विकासशील देश भी इसमें योगदान दें। दूसरा, विकसित देश इस योगदान में निजी क्षेत्र के निवेश को भी शामिल करना चाहते हैं, जबकि विकासशील देश ग्रीन फंड के लिए अलग योगदान के पक्षधर हैं।

जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमव्रर्क सम्मेलन; द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से ही जलवायु परिवर्तन को लेकर वैश्विक स्तर पर चर्चाएं शुरू हो गई थीं। वर्ष 1972 में स्वीडन की राजधानी स्टॉकहोम में जलवायु परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए पहला सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में यह निर्णय लिया गया कि प्रत्येक देश जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए अपने-अपने नियम बनाएंगे। इस आशय की पुष्टि हेतु 1972 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम का गठन किया गया।

स्टॉकहोम सम्मेलन के बाद वर्ष 1992 में ब्राजील के रियो डि जेनेरियो में सम्बद्ध राष्ट्रों के प्रतिनिधि एकत्रित हुए तथा जलवायु परिवर्तन संबंधित कार्ययोजना के भविष्य की दिशा में पुनः चर्चा की। इस सम्मेलन को रियोसम्मेलन के नाम से भी जाना जाता है। रियो डि जेनेरियो में यह तय किया गया कि सदस्य राष्ट्र प्रत्येक वर्ष एक सम्मेलन में एकत्रित होगे तथा जलवायु संबंधित चिंताओं और कार्ययोजनाओं पर चर्चा करेंगे। इस सम्मेलन को कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कोप) नाम दिया गया। वर्ष 1995 में पहला कोप सम्मेलन आयोजित किया गया। वर्ष 1995 से 2013 तक कुल 19 कॉन्फ्रेंस ऑफ पार्टीज (कोप-19) का आयोजन किया जा चुका है। कोप-20 का आयोजन वर्ष 2015 में फ्रांस के ले बुरगेनामक स्थान पर 30 नवम्बर से 11 दिसंबर तक आयोजित किया जाएगा।

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