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HISTORY

Home » बहमनी साम्राज्य UPSC NOTES IN HINDI

बहमनी साम्राज्य UPSC NOTES IN HINDI

  • Posted by ADITYA KUMAR MISHRA
  • Categories HISTORY
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बहमनी साम्राज्य की स्थापना मुहम्मद बिन तुगलक के काल में अलाउद्दीन हसन  बहमन  शाह (हसन गंगू) ने की थी | इस वंश के शासकों ने लगभग 180 वर्ष (1347-1527) ई०  तक शासन किया | जो क्रमानुसार निम्नलिखित है – अलाउद्दीन हसन  बहमन  शाह , मुहम्मद शाह, मुजाहिद शाह, मुहम्मद शाह द्वितीय, गयासुद्दीन, ताजुद्दीन फिरोज शाह, शिहाबुद्दीन अहमद, अलाउद्दीन अहमद द्वितीय, हुमायुँ, समसुद्दीन मुहम्मद द्वितीय, शिहाबुद्दीन महमूद शाह आदि |

बहमनी साम्राज्य, मध्यकालीन भारत का मुस्लिम साम्राज्य था जिसका विस्तार दक्षिण भारत के दक्कन में था. इसकी स्थापना 1347 ईस्वी में तुर्की गवर्नर अल्लाह-उद्दीन हसन बहमन द्वारा हुई जिसे कि हसन गंगू के नाम से भी जाना जाता है. इसने दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के विरुद्ध सफलता पूर्वक विद्रोह किया था.

बहमनी साम्राज्य का सदैव ही विजयनगर साम्राज्य से दक्क्न पर अधिकार के लिए युद्ध होता रहा. 1347 ईस्वी से 1425 ईस्वी तक बहमनी साम्राज्य की राजधानी गुलबर्ग थी. इसके बाद 1425 ईस्वी में यह बिदार में स्थांतरित हो गयी.

Bahmani Kingdom (बहमनी साम्राज्य): UPSC के लिए NCERT नोट्स

यह साम्राज्य,  महमूद गवाँ के काल में अपनी पराकाष्ठा पर पहुचा जो कि साम्राज्य का प्रधानमंत्री था. 1482 ईस्वी में इसकी हत्या मुहम्मद शाह तृतीय के द्वारा कर दी गयी जो कि दक्कनि व आफ्कीस की शत्रुता का परिणाम था. इसकी हत्या के बाद ही साम्राज्य का विघटन प्रारंभ हो गया. साम्राज्य 5 हिस्सों में विघटित हुआ जो की इस प्रकार थे: आदमशाही (अहमदनगर), आदीलशाही (बीजापुर), कुतुबशाही (गोलकुंडा), बारीशाही (बिदार) तथा बेरार का ईमादशाही साम्राज्य (इसे अहमदनगर द्वारा आदिकार में ले लिया गया). बीजापुर, अहमदनगर और बेरार ने 1490 ईस्वी में स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर दिया, बिदार ने 1492 ईस्वी में तथा गोलकुंडा ने 1512 ईस्वी में अलग किया. बहमानी साम्राज्य का अंतिम शासक कालीमूल्लाह था.

जफर खाँ (1347-1358 ई.) 

जफर खाँ नामक सरदार अलाउद्दीन हसन बहमन शाह की उपाधि धारण करके 1347 ई. में सिहासनारूढ़ हुआ और बहमनी साम्राज्य की नींव डाली।

उसने गुलबर्गा को अपने नव-संस्थापित साम्राज्य की राजधानी बनाया तथा उसका नाम अहसानाबाद रखा।

अपने साम्राज्य के शासन के लिए उसने इसे चार तरफों अथवा प्रान्तों में विभाजित कर दिया-गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर। प्रत्येक प्रान्त एक शासक के अधीन था। गुलबर्गा का तरफ सबसे महत्वपूर्ण था। इसमें बीजापुर सम्मिलित था।

दक्षिण के हिन्दू शासकों को उसने अपने अधीन किया तथा अपने अनुयायियों को पद और जागीर प्रदान करेन की नयी प्रथा प्रारंभ की। उसने हिन्दुओं से जजिया न लेने का आदेश दिया।

अपने शासन के अंतिम दिनों में बहमनशाह ने दाबुल पर अधिकार किया जो पश्चिमी समुद्र तट पर बहमनी साम्राज्य का सबसे महत्वपूर्ण बन्दरगाह था।

कहा जाता है कि वह अपने को अर्द्धपौरागणित ईरानी योद्धा बहमनशाह का वंशज मानता है किन्तु लोक श्रुतियों के अनुसार बहमनशाह उसके ब्राम्हण आश्रयदाता के प्रति आदर का प्रतीक था।

मुहम्मदशाह प्रथम

उसने शासन का कुशल संगठन किया। उसके काल की मुख्य घटना विजयनगर तथा वारंगल से युद्ध तथा विजय थी।

इसी काल में बारूद का प्रयोग पहली बार हुआ जिससे रक्षा संगठन में एक नई क्रांति पैदा हुई। सेना के सेनानायक को अमीर-ए-उमरा कहा जाता था और उसके नीचे बारबरदान होते थे।

ताजुद्दीन फिरोजशाह (1397-1422 ई.)

यह बहमनी वंश के सर्वाधिक विद्वान सुल्तानों में से एक था। उसने एशियाई विदेशियों या अफाकियों को बहमनी साम्राज्य में आकर स्थायी रूप से बसने के लिए प्रोत्साहित किया।

जिसके परिणामस्वरूप बहमनी अमीर वर्ग अफीकी और दक्कनी दो गुटों में विभाजित हो गया। यह दलबंदी बहमनी साम्राज्य के पतन और विघटन का मुख्य कारण सिद्ध हुआ।

फिरोजशाह बहमनी का सबसे अच्छा कार्य प्रशासन में बड़े स्तर पर हिन्दुओं को सम्मिलित करना था, कहा जाता है इसी समय से दक्कनी ब्राम्हण प्रशासन में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करने लगे। उसने दौलताबाद में एक बेधशाला बनवाई।

सुल्तान ताजुद्दीन फिरोज द्वारा पश्चिम एशियाई देशों जैसे-ईराक, ईरान एवं अरब देशों से विदेशी मुसलमानों को भी आमंत्रित किया और उन्हें प्रशासन में उच्च पद दिया।

उसने अकबर के फतेहपुर सीकरी की भांति भीमा नदी के किनारे फिरोजाबाद नगर की नींव डाली। गुलबर्गा युग के सुल्तानों में यह अंतिम सुल्तान था।

इसका शासन काल गुलबर्गा के संत गेसूदराज के साथ संघर्ष के कारण दूषित हो गया।

शिहाबुद्दीन अहमद प्रथम (1422-1446 ई.)

उसने सर्वप्रथम गुलबर्गा के स्थान पर बीदर को अपनी राजधनी बनाई। बहमनी साम्राज्य की इस नवीन राजधानी को मुहम्मदाबाद नाम दिया गया।

अहमद के शासन काल में इस दलगत राजनीति (दक्कनी एवं अफाकी) ने साम्प्रदायिक रूप ले लिया क्योंकि सुल्तान ने ईरान से शिया संतों को भी आमंत्रित किया। खुरासान में स्थित इस्फरायनी का कवि शेख आजरी उसके दरबार में आया था।

उसका शासन काल न्याय एवं धर्म निष्ठता के लिए प्रख्यात था। अतः उसे इतिहास में अहमदशाहवली या संत अहमद भी कहा जाता है।

अलाउद्दीन अहमद द्वितीय (1436-1458 ई.)

सुल्तान अलाउद्दीन अहमद अपने पिता अहमद प्रथम की भांति योग्य एवं संकल्प युक्त शासक नहीं था। उसके शासन काल में अफाकियों के आगमन पहले से कहीं अधिक बढ़ गये।

इसी के काल में ईरानी (अफाकी) निवासी महमूद गवां का उत्कर्ष हुआ। वह पहले एक व्यापारी था। उसे व्यापारियों के प्रमुख (मलिक उत् तुज्जार) की उपाधि मिली।

इसी काल में उड़ीसा के गजपति नरेशों की साम्राज्यवादी महत्वाकांक्षा का सूत्रपात हुआ और दक्षिण की ओर उनके विस्तारवाद के परिणामस्वरूप बहमनी एवं गजपति सेनाओं से कई बार युद्ध हुआ।

फरिश्ता एवं बुरहाने-मआसिर के लेखक से हमें ज्ञात होता है कि उसने ‘‘मस्जिदों, सार्वजनिक विद्यालयों एवं दातव्य संस्थाओं की स्थापना की, अपनी राजधानी बीदर में एक अस्पताल का निर्माण भी करवाया। उसने वहां दो सुन्दर गांव धार्मिक दान के रूप में दिये थे ताकि इन गांवों के राजस्व को पूर्णतः दवाओं एवं पेय पदार्थों की आपूर्ति में लगाया जा सके।’’

हुमायूं

अलाउद्दीन की मृत्यु के बाद उसका ज्येष्ठ पुत्र हुमायूं शासक बना वह इतना निष्ठुर था कि उसे ‘जालिम’ की उपाधि दी गयी थी। इसे ‘दक्कन का नीरो’ भी कहा जाता था।

उसने महमूद गवां को अपना प्रधानमंत्री नियुक्त किया।

हुमायूं की मृत्यु के समय उसक पुत्र निजामुद्दीन अहमद की आयु केवल आठ वर्ष की थी। इस कारण हुमायूं ने अपने जीवनकाल में ही एक प्रशासनिक परिषद की स्थापना की। जिसमें राजमाता, महमूद गवां सहित चार व्यक्ति थे।

मुहम्मद तृतीय (1463-1482 ई.)

  • राज्यारोहण के समय मुहम्मद तृतीय की आयु केवल नौ वर्ष की थी। महमूद गवां इसका प्रधानमंत्री था।
  • उसके शासन काल में ख्वाजा जहाँ की मृत्यु हो गई। तत्पश्चात महमूद गवां को ख्वाजा जहाँ की उपाधि प्रदान की गई। महमूद गवां ने अपरमित राजभक्ति से बहमनी राज्य की सेवा की तथा कुशल कूटनीति व सैनिक नेतृत्व से उसे ऊँचाईयों पर पहुंचा दिया।
  • मुहम्मद तृतीय के शासन काल में रूसी यात्री निकितिन बहमनी राज्य की यात्रा की थी। उसने बहमनी शासन में जनसाधारण की दशा का वर्णन अपने लेख में किया है।

बहमनी राज्य का प्रशासन

केंद्रीय  प्रशासन – 

शासन का प्रधान सुलतान था जो निरंकुश और स्वेच्छाचारी शासक होता था, जो  केंद्रीय प्रशासन सामान्यत: 8 मंत्रियों के सहयोग से संचलित किया जाता था |

  1. वकील-उस- सल्तनत – यह प्रधानमंत्री था। सुल्तान के सभी आदेश उसके द्वारा ही पारित हात थे |
  2. अमीर-ए-जुमला – यह वित्तमंत्री था |
  3.  वजीर-ए-अशरफ – यह विदेश मंत्री था |
  4. वजीर-ए-कुल – यह सभी मंत्रियों के कार्यों का निरीक्षण करता था
  5. पेशवा – यह वकील के साथ संयुक्त रूप से कार्य करता था |
  6. नाजिर – यह अर्थ विभाग से संलग्न था तथा उपमंत्री की भांति कार्य करता था |
  7. कोतवाल – यह पुलिस विभाग का अध्यक्ष था |
  8. सद-ए-जाहर (राष्ट्र-ए-जहाँ) – यह सुल्तान के पश्चात् राज्य का मुख्य न्यायाधीश था तथा धार्मिक कार्यों तथा राज्य को दिये जाने वाले दान की भी व्यवस्था करता था |

प्रान्तीय  शासन

प्रान्तीय  शासन व्यवस्था को सु-व्यवस्थित करने के लिए अपने राज्य को चार सूबों में विभाजित किया गुलबर्गा, दौलताबाद, बरार और बीदर|  प्रान्तीय गवर्नर अपने-अपने प्रान्त में सर्वोच्च होता था तथा उसका प्रमुख कार्य अपने प्रान्त में राजस्व वसूलना, सेना संगठित करना व प्रान्त के सभी नागरिक व सैनिक क्षेत्र के कर्मचारियों की नियुक्ति करना था |

मुहम्मद शाह तृतीय के समय में बहमनी साम्राज्य का सर्वाधिक विस्तार हुआ। उसके प्रधानमंत्री महमूद गवां ने प्रशासनिक सुधारों के अन्तर्गत प्रान्तों को आठ सूबों  – बरार को गाविल व माहुर में, गुलबर्गा को बीजापुर व गुलबर्गा में, दौलताबाद को दौलताबाद व जुन्नार में तथा बीदरको राजामुंदी और वारंगल में विभाजित किया |

साहित्य

  • बहमनी शासकों ने अरबी और फ़ारसी विद्वानों को अपने राज्य में संरक्षण प्रदान किया तथा महमूद गवां ने इन भाषाओं को प्रोत्साहित करने के लिए बीदर में एक भव्य पुस्तकालय और मदरसा की  स्थापना की |
  • प्रसिद्ध सूफी संत गेसूदराज दक्षिण के प्रथम विद्वान थे उर्दू पुस्तक मिरात-उल-आशिकी की फ़ारसी भाषा में रचना की |
  • इब्राहिम आदिलशाह द्वितीय प्रथम शासक था जिसने उर्दू को बीजापुर की राजभाषा के रूप में स्वीकार किया |

कला और वास्तुशिल्प 

मुहम्मद बिन तुगलक के दक्षिण के दौलताबाद में राजधानी स्थापित करने के पश्चात एक नई कला हिन्दू-मुस्लिम कला और वास्तुशिल्प का प्रारम्भ हुआ, तथा बहमनी साम्राज्य की स्थापना के बाद इसका विकास तीन चरणों में हुआ |

  • गुलबर्गा काल
  • बीदर काल
  • उत्तरवर्ती बहमनी साम्राज्य

बहमनी साम्राज्य के राजनीतिक भाग्य को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है। पहला चरण ईस्वी सन् 1347-1422 के बीच और दूसरा चरण 1422-1538 ई। के बीच था। पहले चरण में, गतिविधि का केंद्र गुलबर्गा था और दूसरे में, गतिविधि का केंद्र अपने रणनीतिक स्थान के कारण बिदर में स्थानांतरित कर दिया गया था। बहमनी साम्राज्य विजयनगर शक्ति का समकालीन था, जिसकी स्थापना 1336 ईस्वी में हुई थी।

बहमनी राज्य के पतन के कारण

  1. विलासी शासक-बहमनी राज्य के शासक प्राय: विलासी थे । वे सुरा सुन्दरी में डूबे रहते थे । विजयनगर के साथ निरन्तर संघर्ष के कारण प्रबन्ध पर विचार करने के लिए उन्हें अवसर नहीं मिला ।
  2. दक्षिण भारत तथा विदेशी अमीरों में संघर्ष – इस संघर्ष ने बहमनी राज्य को दुर्बल बना दिया ।
  3. धर्मान्धता- सुल्तानों की धर्मान्धता तथा असहिष्णुता के कारण, सामान्य जनता उनसे घृणा करती थी ।
  4. महमूद गंवा का वध – महमूद गवां के वध से योग्य तथा ईमानदार कर्मचारी निराश हुए । इससे उनकी राजभक्ति में कमी आई । महमूद गवां की हत्या बहमनी राज्य के लिए एक ऐतिहासिक घटना थी, क्योंकि उसकी हत्या के पश्चात् बहमनी राज्य का पतन आरम्भ हो गया ।
  5. कमजोर शासक- महमदू शाह कमजोर शासक था । उत्तराधिकारी के सुनिश्चित नियम नहीं थे तथा राजकुमारों के सही प्रशिक्षण की व्यवस्था भी नहीं थी ।

अत: उपर्युक्त कारणों से बहमनी राज्य का पतन हो गया ।

बहमनी राज्य का योगदान

1. स्थापत्य कला-सुल्तानों ने अपने शासनकाल में अनेक भव्य भवनों का निर्माण करवाया । गुलबर्गा तथा बीदर के राजमहल, गेसुद राज की कब्र, चार विशाल दरवाजे वाला फिरोज शाह का महल, मुहम्मद आदिल शाह का मकबरा, जामा मस्जिद, बीजापुर की गोल गुम्बद तथा बीजापुर सुल्तानों के मकबरे स्थापत्य कला के उत्कृष्ट नमूने है । गोल गुम्बद को विश्व के गुम्बदों में श्रेष्ठ माना जाता है । गोलकुंडा तथा दौलताबाद के किले भी इसी श्रेणी में आते हैं । इस स्थापत्य कला में हिन्दू, तुर्की, मिस्त्री, ईरानी तथा अरेबिक कलाओं का सम्मिश्रण है ।
2. साहित्य संगीत- बमहनी के सुल्तानों ने साहित्य तथा संगीत को प्रोत्साहित किया। ताजउद्दीन फिराज शाह स्वयं फारसी, अरबी और तुर्की भाषाओं का विद्वान था । उसकी अनेक हिन्दू रानियां भी थी । वह प्रत्येक रानी से उसी की भाषा में बोलता था ।  मुहम्मद शाह तृतीयतथा उसका वजीर महमूद गवा एक विद्वान था । उसने शिक्षा का प्रचार किया । विद्यालय तथा पुस्तकालय खोले । इसके निजी पुस्तकालय में 3000 पुस्तकें थीं । उसके दो ग्रंथ अत्यधिक प्रसिद्ध हैं – 

  1. उरोजात-उन-इंशा, 
  2. दीवाने अश्र । 

इस काल में प्रादेशिक तथा ऐतिहासिक साहित्य का उन्नयन हुआ ।

महमूद गवां की उपलब्धियां 

  • प्रशासनिक परिषद के सदस्य एवं सुल्तान हुमायूं के शासन काल में प्रधानमंत्री के रूप में महमूद गवां बहमनी साम्राज्य की राजनीति के समस्याओं को भलीभांति समझ चुका था।
  • महमूद गवां का सबसे बड़ा योगदान यह है कि बहमनी साम्राज्य की समस्त राजनीतिक समस्याओं का निराकरण कर उसे बहमनी साम्राज्य को उत्कर्ष की पराकाष्ठा पर पहुंचा दिया।
  • सबसे पहले उसने मालवा पर अधिकार किया। उसकी सबसे महत्वपूर्ण सैनिक सफलता गोवा पर अधिकार प्राप्त करना था। गोवा पश्चिमी समुद्री तट का सर्वाधिक प्रसिद्ध बंदरगाह था। यह विजयनगर का संरक्षित राज्य (क्षेत्र) था।
  • महमूद गवां ने नवविजित प्रदेशों सहित भूतपूर्व चार तरफों (प्रान्तों) को अब आठ तरफो (प्रान्तों) में विभाजित किया-‘बरार’ को गाविल और माहुर, ‘गुलबर्गा’ को बीजापुर एवं गुलबर्गा, दौलताबाद को दौलताबाद एवं जुन्नार तथा ‘तेलंगाना’ को राजमुद्री और वारंगल के रूप में विभाजित किया।
  • उसने प्रत्येक प्रान्तों से थोड़ी-थोड़ी जमीन लेकर उसे खालसा भूमि में परिवर्तित किया। इसके अतिरिक्त प्रान्तीय गवर्नरों के सैनिक अधिकारों में भी कटौती की अब पूरे प्रान्त में केवल एक किले को ही प्रत्येक गवर्नर के अधीन रहने दिया गया।
  • महमूद गवां ने भूमि की व्यवस्थित पैमाइश, ग्रामों के सीमा-निर्धारण और लगान-निर्धारण की जांच कराई।
  • महमूद गवां बड़ा साहित्यिक एवं सांस्कृतिक सुरूचि सम्पन्न व्यक्ति था। वह विद्वानों का महान संरक्षक था। उसने बीदर में एक महाविद्यालय की स्थापना की।
  • महमूद गवां ने अपनी राजनीतिक गतिविधियों को न केवल बहमनी साम्राज्य तक सीमित किया अपितु उसके बाहर ईरान, ईराक, मिस्र और टर्की के सुल्तानों के साथ पत्र व्यवहार भी किया।
  • किन्तु इस महान व्यक्ति का अन्त दुखद रहा। 1481-82 ई. में मुहम्मद तृतीय ने इसे राजद्रोह के आरोप फांसी (मृत्यु दण्ड) दे दी। इसका मुख्य कारण अफाकियों एवं दक्कनियों के मध्य वैमनस्यता थी।
  • मुहम्मद तृतीय के शासन काल में यह बीजापुर का तफरदार (गवर्नर) था।
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