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GEOGRAPHY

Home » मानव अधिवास एवं प्रवासन FOR UPSC IN HINDI

मानव अधिवास एवं प्रवासन FOR UPSC IN HINDI

  • Posted by teamupsc4u
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वर्गीकरण

मानव बस्तियों का नियंत्रण पारिस्थितिक कारकों के द्वारा होता है। मानव अधिवास की विधि और स्थानिक प्रतिरूप से यह ज्ञात होता है कि उस क्षेत्र में पारिस्थितिक कारकों और शक्तियों का सामूहिक समायोजन किस प्रकार किया गया है। कुछ क्षेत्रों में, यथा-भारत में बस्ती पद का उपयोग उस विशिष्ट क्षेत्रीय इकाई के लिए भी किया जाता है, जिसकी राजस्व वसूली के लिए पहचान की जाती है। (इस स्थिति में बस्ती मानव अधिवास के बगैर भी हो सकती है)।

बस्तियों का वर्गीकरण कुछ निश्चित खण्डों में किया जा सकता है। अधिकांशतःइसे दो सामान्य वर्गों-शहरी बस्ती एवं ग्रामीण बस्ती में विभक्त किया जाता है। शहरी बस्ती और ग्रामीण बस्ती में मुख्य अंतर यह है कि शहरी बस्तियों के लोग उद्योग अथवा व्यापार का व्यवसाय करते हैं, जबकि ग्रामीण बस्तियों के लोगों का व्यवसाय मुख्यतया कृषि पर आश्रित होता है।

बस्तियों को मकानों, आश्रयों या झोपड़ियों आदि की पारस्परिक दूरियों के आधार पर भी या सम्मिश्रित बस्तियां और अपखण्डित बस्तियां शामिल हैं।

बस्तियों के निर्माण के लिए कुछ आधारभूत तत्वों की आवश्यकता होती है और वे तत्व हैं- जल की उपलब्धता, खाद्य आपूर्ति, मकान निर्माण के लिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति तथा प्राकृतिक आपदाओं एवं मानवीय शत्रुओं से सुरक्षा के प्रबंध।

ग्रामीण बस्तियां सामान्यतः कृषि पर आश्रित होती हैं। कुछ बस्तियां मत्स्यपालन, खुदाई आदि पर भी आश्रित होती हैं। परंतु, उनकी गतिविधियां सीमित होती हैं और इसलिए यहां वाणिज्यिक एवं औद्योगिक विकास की गति मंद होती है। ग्रामीण बस्तियां सामान्यतः तीन प्रकार की होती हैं- परिक्षिप्त या एकाकी, सघन और कुछ घरों वाले छोटे गांव।

शहरों के विकास को व्यापारिक गतिविधियों ने प्रोत्साहित किया है। कुछ क्षेत्र संभवतः कुछ निश्चित संसाधनों के दोहन पर भी आधारित हैं जैसे- मत्स्य पालन अथवा उत्खनन। अन्य शहर धार्मिक एवं सांस्कृतिक कारकों से संबद्ध हैं। आरंभिक शहरों का विकास सुरक्षित क्षेत्रों में हुआ।

ग्रामीण एवं शहरी क्षेत्रों की जनगणना परिभाषा

सभी शहरों में किसी न किसी प्रकार की व्यापारिक गतिविधियां संचालित होती हैं। बहुत से शहरों में अतिरिक्त गतिविधियां भी संचालित होती हैं, जिनसे उनकी विशिष्ट पहचान बनती है। शहरों का वर्गीकरण उनके प्रभावी कार्यों के आधार पर होता है। ये प्रभावी कार्य हैं- व्यापार, प्रशासन, सुरक्षा या संस्कृति (शिक्षा अथवा पर्यटन पर आधारित)।

भारत की जनगणना के दौरान उन्हीं बस्तियों को शहरी श्रेणी में निर्धारित किया गया है, जो निम्न शर्तों को पूरा करती हैं-

  • 5,000 से अधिक की जनसंख्या।
  • 400 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. से ऊपर जनसंख्या घनत्व।
  • पुरुष कार्यशील जनसंख्या में से कम से कम 75 प्रतिशत का गैर-कृषक व्यवसाय पर आश्रित होना।

नगरपालिका, नगरनिगम, छावनी परिषद और शहरी क्षेत्र समिति किसी निश्चित क्षेत्र को शहरी क्षेत्र का स्वरूप प्रदान करते हैं, यदि वे एक या अन्य शतों को नहीं भी पूर्ण करते हों, फिर भी वे शहर के रूप में जाने जाते हैं।

शहरी क्षेत्रों में जहां की जनसंख्या 1 लाख से ऊपर होती है, उन्हें नगर की संज्ञा दी जाती है। वैसे नगर जिनकी जनसंख्या 1 लाख से अधिक होती है, को महानगर की संज्ञा दी जाती है। महानगरों में सामान्यतः अनेक राज्यों के लोग निवास करते हैं। सार्वभौम नगरों में अनेक देशों के लोग आकर निवास करते हैं या उनकी गतिविधियां संचालित होती हैं।

ग्रामीण बस्ती प्रतिरूप

भारत में गर्म, नियोजित बस्ती की अवधारणा के स्थान पर, अपने भौतिक एवं सांस्कृतिक विन्यास के संबंध में प्राकृतिक विकास के एक प्रकार को दर्शाते हैं। इस प्रकार सुस्पष्ट आकार तथा एक विशिष्ट आंतरिक योजना के अभाव के बावजूद भारतीय गांवों की आंतरिक संरचना एवं बाहरी परिच्छेदिका दोनों में एक उल्लेखनीय संगठन पाया जाता है, जो उनकी स्थलीय विशेषताओं एवं उनके सांस्कृतिक विन्यास से जुड़ा है। स्थल संरूपण, सतही जल, मृदा की प्रकृति, भूतकाल में सुरक्षा का स्तर तथा मौजूदा सामाजिक संरचना इत्यादि ऐसे कारक हैं, जो भारत के ग्रामीण बस्ती प्रतिरूप के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

एक विशिष्ट भारतीय ग्रामीण बस्ती के अंतर्गत आवास गृह, सड़कें, व्यापारिक व धार्मिक गतिविधियों के क्षेत्र तथा चारों ओर फैले खेत शामिल हैं।

ग्रामीण बस्तियां तीन आकारों की हो सकती हैं-

  1. विलग बस्तियां: इसके अंतर्गत दूरवर्ती खेतों में स्थित एक-दो आवास गृह शामिल हैं। यहां कोई भी व्यापारिक-धार्मिक-सांस्कृतिक गतिविधि सम्पन्न नहीं हेाती।
  2. हैमलेट या पल्ली ग्राम: इनमें दो-तीन से लेकर दस आवास गृह तक हो सकते हैं।
  3. ग्राम: इनमें अनेक आवासगृह, खेत, सड़क तंत्र, धार्मिक स्थल तथा व्यापारिक व सांस्कृतिक

ग्रामीण बस्तियों के प्रकार ये मुख्यतः तीन प्रकार की होती हैं:

संगुच्छ बस्तियां

इन्हें एकत्रित या अकेन्द्रित बस्तियों के नाम से भी जाना जाता है। इन बस्तियों में संकरी एवं जुड़ी हुई सड़कें घरों की दो कतारों को पृथक् करती हैं। आवासगृहों के संगुच्छक सामाजिक विसंयोजन (जातिगत आधार पर) के कारण विखरे हुए हो सकते हैं, जैसा कि बिहार, उत्तर प्रदेश, कर्नाटक व तमिलनाडु में दिखाई देता है। यहां निम्न जातियों के पल्ली ग्राम बने होते हैं, जो गांव के मुख्य केंद्र से दूर स्थित होते हैं। ये द्वितीयक बस्तियां प्रायः पारा, नगला या धानी के नाम से भी जानी जाती हैं।

संगुच्छ बस्तियां उत्तर भारत के उपजाऊ मैदान, ओडीशा तट, महानदी-कावेरी-वैगई के बेसिन क्षेत्र, कर्नाटक के मैदान, आंध्र प्रदेश के रायलसीमा क्षेत्र तथा असम व त्रिपुरा में पूर्वी भागों में फैली हुई हैं। इन बस्तियों की बसाव योजना व प्रतिरूप कई प्रकार के होते हैं, जैसे

रैखिक प्रतिरूप: यह सामान्यतः सड़क या नदी किनारे के साथ-साथ होता है। यह समय के साथ अन्य किसी प्रतिरूप में बदल सकता है

आयताकार प्रतिरुप: यह बहुत ही सामान्य प्रकार है, जो आयताकार क्षेत्र के चारों ओर विकसित होता है। ग्रामीण रास्ते भी आयताकार क्षेत्र प्रतिरूप का अनुसरण करते हुए उत्तर-दक्षिण एवं पूर्व-पश्चिम दिशा में निकलते हैं।

खोखला आयताकार प्रतिरुप: यह तव अस्तित्व में आता है, जब आयताकार प्रतिरूप के मध्य में एक खुला स्थान रखा जाता है। गांव के मध्य में किसी पुराने किले, तालाब, खेल मैदान या टीले की उपस्थिति के कारण यह प्रतिरूप उभरकर आता है। इस स्थान का उपयोग पंचायत की बैठकों, सांस्कृतिक कार्यक्रमों या साप्ताहिक बाजारों के आयोजन हेतु किया जाता है।

Migration

गोलाकार प्रतिरुप: ऊपरी दोआब एवं यमुना पार के जिलों, मालवा, पंजाब तथा गुजरात में बड़े गांवों का बसाव प्रतिरूप इसी प्रकार का होता है। घरों की बाहरी दीवारें एक-दूसरे से जुड़ी होती हैं तथा एक अविच्छिन्न अग्रांत को दर्शाती हैं। इसीलिए बाहरी भागों से देखने पर ये गांव दीवारों से घिरे बाड़ों जैसे दिखाई देते हैं। गोलाकार प्रतिरूप भूतकाल के दौरान सुरक्षा के उद्देश्य से किये गये अधिकाधिक समूहन का स्वाभाविक परिणाम था।

खोखला गोलाकार प्रतिरुप: गोलाकार प्रतिरूप वाली बस्तियों के मध्य में कोई खाली स्थान छूट जाने के कारण इस प्रकार के प्रतिरूप का जन्म होता है।

वर्गाकार प्रतिरुप: यह मूलतः आयताकार प्रतिरूप का एक विभेद है। इसके निर्माण में सड़क चौराहों के अतिरिक्त गांव की बसावट के बाहरी प्रसारको वर्गाकार रूप में सीमित करने वाले अवरोधों (पुरानी दीवार, घना उद्यान, तालाब या सड़क) का योगदान होता है।

होरिंग बोन प्रतिरुप: इस प्रतिरूप के अंतर्गत एक आयताकार क्षेत्र में एक मुख्य सड़क से सभी उप-सड़कें एक निश्चित कोण पर मिलती हैं। यह प्रतिरूप स्पष्टतः मुख्य सड़क के असामान्य महत्व का परिणाम होता है, जिसे उप-मार्गों की सहायक प्रकृति द्वारा प्रकट किया जाता है।

अरीय प्रतिरूप: इसके अंतर्गत कई सड़कें एक केंद्र की ओर आकार मिलती हैं, जो तालाब, मंदिर, छोटा बाजार या खुला स्थान इत्यादि में से कुछ भी हो सकता है।

बहुभुज प्रतिरूप: इसे आयताकार और गोलाकार प्रतिरूपों के मध्यवर्ती के रूप में पहचाना जा सकता है। यह गोलाकार प्रतिरूप से ही विकसित हुआ, जब सुरक्षा की जरूरतें समाप्त हो गयीं और चहारदीवारी से बाहर बस्तियों का विस्तार आरंभ हो गया।

अश्व-पादाकार प्रतिरूप: यह प्रतिरूप प्रायद्वीपीय उच्च भूमि में बड़ी संख्या में स्थापित गिरिपादीय गांवों में देखा जा सकता है। ये गांव गोल कटकों या उपगिरिरेखाओं के आधार स्थलों पर बनाये जाते हैं। पहाड़ी की लाभकारी दिशा इनके चारों ओर एक कटिबंध बनाती है, जो अंत में अश्वपाद आकार के मोटे चाप जैसा प्रतीत होता है।

द्वि-केन्द्रित प्रतिरूप: द्विग्राम (डॉपल-डॉर्फर) एक-दूसरे के अतिनिकट स्थित दो गांवों का समूह होता है, जिनमें एक का विकास दूसरे के उपनिवेशीकरण के आधार पर हुआ दिखाई देता है। एक गौण भौतिक अवरोध (नाला, तालाब, उपगिरि या टीला) इस प्रकार के प्रतिरूप का कारण बन सकता है।

अर्द्ध-संगुच्छ बस्तियां

इन्हें आंशिक एकत्रित बस्तियों के नाम से भी जाना जाता है। इस प्रकार की बस्तियां एक छोटे किंतु संयुक्त केन्द्रक से पहचानी जाती हैं, जो बिखरी हुई बस्ती के मध्य में होता है तथा एक अंगूठी जैसी आकृति को उभार देता है। सड़कयानदी धारा के साथ-साथ आवास गृहों का निर्माण होने की स्थिति में बस्ती रेखीय संगुच्छ जैसी दिखाई देती है। इस प्रकार की बस्तियां मणिपुर तथा छोटानागपुर क्षेत्र में नदी किनारे पायी जाती हैं। नागालैंड में ऐसी बस्तियां गिरि शीर्षों पर स्थित होती है तथा जिनके चारों ओर से किलेबंदी की जाती है। तटीय क्षेत्रों में इस प्रकार की बस्तियां मछुआरों के गांवों के रूप में हो सकती हैं। इनके अलावा अर्द्ध-संगुच्छ बस्तियां निम्नलिखित प्रतिरूपों में पायी जा सकती हैं।

शतरंज प्रणाली प्रतिरुप: यह कुछ बड़े आयताकार गांवों की एक विशेषता है, जो सामान्यतः दो सड़कों के मिलन स्थल पर बसे होते हैं। गांव की सड़कें समकोण पर एक-दूसरे से मिलती हैं या एक-दूसरे के समांतर होती हैं। यह ध्रुवीय अक्षों पर बसने की प्रवृत्ति का परिणाम होता है। यहप्रतिरूप सामान्यतः उत्तरी मैदानों एवं दक्षिणी भारत में पाया जाता है।

दीर्घ प्रतिरूप: यह आयताकार प्रतिरूप के दीर्घ होने का परिणाम होता है। उदाहरणस्वरूप गंगा के मैदानों में बाढ़ की संभावना वाले क्षेत्रों में आयताकार प्रतिरूप असामान्यतः उच्चभूमि के साथ-साथ दीर्घ होता जाता है। इसके अलावा नदी तट अवस्थिति द्वारा मिलने वाले लाभ भी इस प्रकार के प्रतिरूप को विकसित करने में प्रोत्साहन देते हैं।

पंखाकार प्रतिरूप: इस प्रकार का प्रतिरूप वहां विकसित होता है, जहां कोई नाभीय बिंदु या रेखा गांव के एक छोर पर स्थित होती है। यह नाभीय बिंदु या रेखा तालाब, नदी तट, सड़क, उद्यान, मंदिर में से कोई भी हो सकती है। ऐसे प्रतिरूप डेल्टाई भागों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं, जहां बस्तियां डेल्टा के पंखाकार संरूपण का अनुसरण करती हैं। हिमालयी गिरिपादों में भी ऐसे बस्ती प्रतिरूप पाये जाते हैं।

परिक्षिप्त बस्तियां

इन्हें विलगित बस्तियों के रूप में भी जाना जाता है। इस प्रकार के प्रतिरूप के अंतर्गत छोटे आकार की बस्ती इकाइयां, जिनमें एकमात्र पल्ली ग्राम (दो से सात झोंपड़ी) तक शामिल हो सकता है, मौजूद होती हैं। पल्लीग्राम एक विशाल क्षेत्र में फैले होते हैं तथा बस्तियों की कोई विशिष्ट योजना नहीं होती है।

इस प्रकार के बस्ती प्रतिरूप पहाड़ी, तरंगित या वन्य क्षेत्रों में पाये जाते हैं। जो बस्तियां उपगिरि या टेकरी पर स्थित होती हैं तथा ढाल के साथ-साथ मैदान की ओर बढ़ती हैं, वे छोटानागपुर पठार, मध्य प्रदेश, राजस्थान, प. बंगाल के जनजातीय क्षेत्रों में सामान्य रूप से देखी जा सकती हैं। इस प्रकार का प्रतिरूप जम्मू-कश्मीर, तमिलनाडु एवं केरल के पहाड़ी इलाकों में भी सामान्य है।

ऐसी बस्तियां उन क्षेत्रों की लाक्षणिक विशेषता है, जहां कृषि सम्बंधी गतिविधियों को संचालित करने के लिए ग्रामीण लोग अपने श्रम को सहकारी आधार पर संगठित करते हैं। इन क्षेत्रों में मेघालय, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, ओडिशा एवं मध्य-प्रदेश शामिल हैं। कभी-कभी परिक्षिप्त प्रतिरूप पूर्णतः आकारहीन होता है, जैसा कि दक्षिणी-पश्चिमी उत्तर प्रदेश, पंजाब, राजस्थान, मालवा, छोटानागपुर पठार, मध्य प्रदेश एवं आंध प्रदेश में देखने को मिलता है।

ग्रामीण बस्तियों के प्रकार को निर्धारित करने वाले कारक

भौतिक कारक: इसके अंतर्गत उच्चावच, ऊंचाई, मृदा सामर्थ्य, जलवायु, अपवाह तंत्र, भूमिगत जलस्तर इत्यादि शामिल हैं। उदाहरणार्थ, राजस्थान जैसे शुष्क क्षेत्रों में जल एक निर्णायक कारक होता है तथा आवास गृह जलाशय या कुएं के निकट स्थित होते हैं, जो बस्ती की संयुक्तता को निर्देशित करता है।

नृजातीय एवं सांस्कृतिक कारक: इसके अंतर्गत जाति, जनजाति, समुदाय एवं धर्म पर आधारित पहलुओं को शामिल किया जाता है। भारत में सामान्यतः यह देखा जाता है कि, मुख्य भू-स्वामी जाति केंद्र में निवास करती है तथा सेवा उपलब्ध कराने वाली निम्न जातियां गांव की परिधि पर रहती हैं। इस कारण एक संयुक्त बस्ती का कई इकाइयों में विखंडन तथा सामाजिक अलगाव होता है।

ऐतिहासिक कारक: इनमें बाहरी या भीतरो आक्रमण से सुरक्षा की चिंताएं शामिल हैं। ऐसी चिंताओं ने उत्तरी भारत के मैदानों में केंद्रीय बस्तियों के विकास को प्रोत्साहन दिया है।

भारत में  ग्रामीण जनसंख्या

जनगणना 2011 के अंतिम आकड़ों के अनुसार, भारत में 6,40,930 गांव हैं जो 2001 के आंकड़ों के मुकाबले 2,342 अधिक हैं। देश की कुल जनसंख्या का 68.8 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र की जनसंख्या का था, यह 2001-2011 के दशक में कुछ 90 मिलियन की बढ़ोतरी है। उत्तर प्रदेश (18.6 प्रतिशत), बिहार (11.1 प्रतिशत) तथा पश्चिम बंगाल (7.5 प्रतिशत) के साथ देश के प्रमुख ग्रामीण जनसंख्या की हिस्सेदारी वाले राज्य हैं। जबकि सिक्किम, मिजोरम एवं गोवा न्यूनतम कुल ग्रामीण जनसंख्या की हिस्सेदारी वाले राज्य हैं, इनमें से प्रत्येक की भागीदारी 0.1 प्रतिशत के लगभग है।

2001-2011 के मध्य सर्वाधिक ग्रामीण जनसंख्या में वृद्धि मेघालय (27 प्रतिशत) और बिहार (24 प्रतिशत) में देखी गई थी। इसी प्रकार केरल, गोवा, नागालैंड तथा सिक्किम में ग्रामीण जनसंख्या में रिकॉर्ड कमी दर्ज की गई थी।

शहरी क्षेत्र

एक शहरी क्षेत्र को सीमांकित करना सरल नहीं है। नगरपालिका सीमा (जिससे प्रायः नगर क्षेत्र परिभाषित किया जाता है) एक व्यवहारिक पैमाना नहीं है, क्योंकि यह मुख्यतः कर संग्रह और सेवाओं, जैसे-जल और विद्युत आपूर्ति के प्रावधान, अवशिष्ट संग्रह आदि के लिए निर्धारित की जाती हैं। किंतु एक नगरपालिका क्षेत्र कृषि योग्य भूमि को अपनी सीमा में रख सकता है या सीमा के बाहर नगर परिसर रख सकता है जो कार्यात्मक रूप से इसके आंतरिक क्षेत्र से संबंधित हो परंतु प्रशासनिक रूप से इसकी सीमा से बाहर हो। इस प्रकार तीन प्रकार की सीमाएं पहचानी जा सकती है- राजनैतिक या प्रशासनिक, भौगोलिक और कार्यात्मक।

भारत में शहरीकरण का सबसे महत्वपूर्ण स्रोत जनगणना है शहरी क्षेत्रों के बहुत-से सिद्धांत अनेक जनगणनाओं में विभिन्न स्तरों में प्रयुक्त किए गए हैं।

यह एक व्यवहारिक विचार है जो आकार, कार्य और जनसंख्या सघनता पर विचार करता है। उदाहरण के लिए, 5000 से अधिक की जनसंख्या वाले गांवों को एक शहर के रूप में वर्गीकृत नहीं किया जा सकता, क्योंकि वे (ii) और (iii) दशा को पूरा नहीं करते। किंतु, इस सिद्धांत में अनेक कमियां हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. राज्य सरकारें बहुत-से क्षेत्रों को शहरी क्षेत्रों के रूप में मान्यता प्रदान नहीं करती, क्योंकि वे भूमि कर छोड़ना नहीं चाहती। इस प्रकार की स्थितियों में जनगणना पैमाना शहरीकरण की प्रक्रिया की स्पष्ट तस्वीर प्रस्तुत नहीं करता।
  2. भारत जैसे देश के लिए 400 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर की सीमा उपयुक्त नहीं है, इसके स्थान पर एक उच्च सीमा निर्धारित की जानी चाहिए।
  3. यह तथ्य कि, शहरी जनसंख्या का 75% से अधिक गैर-कृषि कार्यों में संलग्न हो, भी सदैव अनुसरित नहीं किया जाता। वर्ष 1981 की जनगणना के अनुसार शहरी क्षेत्रों में वर्गीकृत 25 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रों में कृषि प्रधान आर्थिक प्रक्रियाएं पाई गई।

तब, कुछ स्थानों पर नगर निगम हैं, लेकिन विलोमतः और अन्य शर्तों को संतुष्ट या पूरा नहीं करते; हालांकि इन स्थानों को शहरी क्षेत्रों के रूप में वर्गीकृत किया गया है।

जनगणना ने शहर एकत्रीकरण (अलग-अलग वस्तुओं का एक साथ इकट्टा होना) की अवधारणा को अपना लिया है।

शहरी समुच्चय: 1971 में कस्बा समूह अवधारणा का परित्याग कर दिया गया और उसके स्थान पर, शहरी समुच्च सिद्धांत को स्वीकार कर लिया गया। शहरी समुच्च भौगोलिक नगर सिद्धांत के काफी निकट है। नगर समुच्च में नगरपालिका कस्बे, जनगणना कस्बे, राजस्वग्राम, रेलवे कॉलोनी, औद्योगिक कस्बे, वाणिज्यिक संकुल, पत्तन कस्बे आदि सम्मिलित होते हैं। यहां तक कि वह क्षेत्र जिनकी विशेषताएं शहरी नहीं भी हैं, निरंतरता के लिए इसमें सम्मिलित होते हैं।

यह सामान्यतः एक उपयोगी सिद्धांत है, किंतु शहरी समुच्च की बाहरी सीमा अस्थिर होती है क्योंकि वह समय के साथ परिवर्तित होती रहती है। साथ ही, यह विचार नियोजन के उद्देश्य से व्यवहारिक नहीं है, चूंकि अधिकांश वृद्धि सीमा से बाहर है।

सन्नगर

सन्नगर में कई फैलते हुएकस्वे आपस में मिलकर एक इकाई बन जाते हैं। इनके केन्द्र में भी नगरीय बस्तियां होती हैं, और प्रायः उसी के नाम से संबोधित होते हैं।

सन्नगर शब्द का उद्गम निरंतर और शहरी क्षेत्र शब्दों से हुआ हैं। इस शब्द का प्रयोग 1915 में पैट्रिक गेड्स ने दो से अधिक शहरी केन्द्रों वाले निरंतर शहरी क्षेत्रों के संदर्भ में किया जिसकी पृथक प्रादेशिक इकाइयां हो सकती हैं। सी.बी.फॉसेट ने सन्नगर को ऐसे क्षेत्र के तौर परपरिभाषित किया है- जिसमें निवास स्थानों की एक क्रमबद्ध श्रृंखला, फैक्टरी और अन्य इमारतें जिसमें पोताश्रय गोदी, पार्क और खेल के मैदान इत्यादि होते हैं और जिन्हें ग्राम भूमि पृथक् नहीं करती।

सन्नगर का विकास: सन्नगर शहर के विकास की एक विशेष अवस्था से सम्बद्ध होते हैं। संवृद्धि के शुरुआती चरण में ऐसे शहरी केंद्र जिनका पड़ोसी कस्बों के साथ कमजोर संपर्क होता है, बाद में औद्योगिक, व्यापार और परिवहन में विकास के कारण सन्नगर के रूप में उदित हो सकते हैं। सन्नगर,महानगरों के विस्तार के कारण विकसित हो सकते हैं (उदाहरणार्थ लंदन कोनरवेशन); या दो विस्तारित शहर एक सन्नगर बना सकते हैं; या दो से अधिक शहर स्तर के केंद्र मिलकर सन्नगर बना सकते हैं।

सन्नगरों की विशेषताएं: सन्नगरों में वृहद् रूप से निम्न विशेषताएं देखी जा सकती हैं-

  • एक सन्नगर निरंतर निर्माणाधीन क्षेत्र होता है लेकिन इसमें रिव्वन विकास शामिल नहीं होता। इसमें आवश्यक रूप से वह निर्माणाधीन क्षेत्र, जो मुख्य निर्माणाधीन क्षेत्र से संकीर्ण ग्रामीण भूमि द्वारा पृथक् होता है, को भी शामिल किया जाता है।
  • सन्नगर उच्च जनसंख्या घनत्व दिखाता है; इसकी जनसंख्या आस-पासकेकस्बों की तुलना में बेहद अधिक होती है।
  • एक सन्नगर में विविध प्रकार के उद्योग संचालित होते हैं जो सन्नगर में श्रम, बेहतर परिवहन इत्यादि पर निर्भर होते हैं।
  • मितव्ययी और बेहतर परिवहन सुविधाओं के कारण, एक सन्नगर अपने आस-पास के पृष्ठ प्रदेशों के लिए शॉपिंग केंद्र के तौर पर सेवा प्रदान करता है।
  • सन्नगरों में वित्तीय वैयक्तिकता होती है जिसकी मात्रा भिन्न-भिन्न होती है।

भारत में, सन्नगरों का निर्धारण प्रति वर्ग किलोमीटर में जनसंख्या घनत्व, विनिर्मित क्षेत्र का प्रतिशत, जनसंख्या भिन्नता का प्रतिशत, शहर के केंद्र में कस्बों की संख्या और फैक्ट्रियों की प्रकृति पर विचार के बाद किया जाता है।

कोलकाता, मुम्बई और चेन्नई को काफी समय बाद सन्नगरों के रूप में पहचाना गया। दिल्ली और आस-पास के कस्बों और शहरों से एक वृहद् सन्नगर का विकास हो रहा है।

सन्नगर से सम्बद्ध समस्याएं: सन्नगर भारत और विश्व के अन्य भागों में तेजी से बढ़ रहे हैं और यह एकचिंता का विषय बन गए हैं। इस तीव्र विस्तार के परिणामस्वरूप उचित अवसंरचनात्मक सुविधाओं और नागरिक सुविधाओं का पूरी जनसंख्या को मुहैया कराना मुश्किल होगा। इससे शहरी झुग्गी बस्ती और निर्धनता, बेरोजगारी, असुरक्षा और अपराघ में वृद्धि होगी। दक्षतापूर्ण तरीके से समस्त क्षेत्र में प्रशासनिक व्यवस्था स्थापित करना, एक समस्या बन गया है। इससेवाहनों की सघनता और गंभीर पर्यावरणीय ह्रास भी हो रहा है।

महानगरीय (मेट्रोपोलिटन) क्षेत्र

शब्द मेट्रोपोलिस जिसका अर्थ मूल शहर है, ऐसे शहर की ओर इशारा करता है जिसकी जनसंख्या एक मिलियन या अधिक होती है। मेट्रोपोलिटन शहरों की वृद्धि की अवधारणा बीसवीं शताब्दी की है। मेट्रोपोलिटन क्षेत्र उपनगरों सहित एक वृहद् शहरी बस्ती होती है। महानगरीय शहर तीव्र शहरीकरण, जनसंख्या वृद्धि और व्यापार एवं उद्योगों के विकास का परिणाम होते हैं। मेट्रोपोलिटन शहरों में, इन्हीं कारणों से, भीड़-भाड़ बढ़ती सघनता, गरीबी और बढ़ती सामाजिक तनाव जैसी कई समस्याएं देखी जाती हैं।

भारत के मुख्य मेट्रोपोलिटन शहर मुम्बई,दिल्ली, कोलकाता और चेन्नई हैं। इन शहरों में सामान (वस्तुओं) और लोगों दोनों के मामले में भारी ट्रैफिक है। मेट्रोपोलिटन क्षेत्रों के आस-पास एक लाख या अधिक की जनसंख्या वाले शहरों का समूह बन जाता है।

शहरीकरण में वृद्धि

देश में शहरीकरण में वृद्धि देखी जा रही है। आप्रवास, प्राकृतिक वृद्धि तथा नवीन क्षेत्रों को शहर की श्रेणी में शामिल करने जैसे कारण इसके लिए उत्तरदायी हैं। वर्ष 2001 में कुल अनतिमजनसंख्या 1210.2 मिलियन में से शहरी जनसंख्या 377.1 मिलियन थी।

वर्ष 2011 में देश की कुल शहरी जनसंख्या में मेघालय (13.5 प्रतिशत), उत्तर प्रदेश (11.8 प्रतिशत) और तमिलनाडु (9.3 प्रतिशत) की सर्वाधिक हिस्सेदारी थी जबकि सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश एवं मिजोरम की इस संदर्भ में न्यूनतम भागीदारी थी।

सिक्किम, केरल एवं त्रिपुरा में शहरी जनसंख्या की वृद्धि में 30 प्रतिशत से भी अधिक की महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है।

वर्ष 1901 में, मात्र 11 प्रतिशत जनसंख्या, कुल जनसंख्या का जोकि 2.56 करोड़ थी, शहरी थी। उस समय 1834 कस्बे तथा शहर थे। शहरी-ग्रामीण अनुपात 1:8.1 था। 1951 तक, शहरी जनसंख्या बढ़कर 6.16 करोड़ हो चुकी थी, जोकि कुल जनसंख्या का 17.6 प्रतिशत थी।

इस प्रकार 1901-1951 के बीच शहरी जनसंख्या में वृद्धि 240 प्रतिशत थी,जबकि 1951-2001 के बीच यह प्रतिशत लगभग 450 थी। 2001-11 के दशक में, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से पहली बार, शहरी जनसंख्या में कुल वृद्धि ग्रामीण जनसंख्या में वृद्धि से अधिक थी। 2001 के मुकाबले शहरी जनसंख्या में 37.7 प्रतिशत तक की वृद्धि हुई। ग्रामीण क्षेत्र में जनसंख्या वृद्धि में 1991 से निरंतर कमी हुई है। पिछले कुछ दशकों में शहरी जनसंख्या में तीव्र वृद्धि, तेजी से औद्योगीकरण तथा शहरी क्षेत्र की ओर प्रवास के कारण रही है, जिसमें से 50 प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्र के लोग होते हैं।

2011 में, 7983 कस्बे हैं, जो 2001 के मुकाबले 2,772 अधिक हैं। वैधानिक कस्बों की संख्या जहां 2001 में 3,799 थी, वहीं 2011 में यह संख्या बढ़कर 4,041 हो गई जबकि सेंसस टाउन की संख्या 2001 में 1,362 के मुकाबले 2011 में 3,892 हो गई।

शहरीकरण आर्थिक विकास एवं प्रगति का मुख्य घटक है। शहरी जनसंख्या ने पूर्व के दशक के दौरान 2.4 प्रतिशत की वृद्धि दर की तुलना में 2001-11 के दौरान 2.76 की वार्षिक वृद्धि दर रिकार्ड की है। ग्रामीण जनसंख्या के लिए तुलनात्मक वृद्धि दर 1.15 प्रतिशत और 1.66 प्रतिशत थी। कस्बों के निवासियों की संख्या वर्तमान में लगभग 377 मिलियन है, यह लगभग 5 मिलियन प्रति वर्ष की दर से बढ़ रही है। ऐतिहासिक रूप से अधिकतम शहरी वृद्धि प्राकृतिक वृद्धि के कारण है न कि विस्थापन के कारण है। यह बदल रही है क्योंकि ग्रामीणों को अवसर मिल रहे हैं। अतः भविष्य में भारत की शहरी जनसंख्या अधिक तीव्रता से बढ़ेगी और यह वर्ष 2050 तक दोगुनी हो जाएगी।

बारहवीं पंचवर्षीय योजना का उद्देश्य है कि शहरीकरण भारत के तीव्र और अधिक विकास प्राप्त करने की कार्यनीति का केंद्र है क्योंकि शहरी समूह में आर्थिक गतिविधियों और वसावट के समूह और घनत्व से आर्थिक क्षमता और आजीविका प्राप्ति के लिए अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। अब शहरी क्षेत्रों को आर्थिक विकास वाहक माना जाता है तथा भारत की सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का 60 प्रतिशत से अधिक शहरी क्षेत्रों से प्राप्त होता है। उल्लेख किया गया है कि 19वीं सदी राजतंत्र की सदी थी; 20वीं सदी देशों की सदी थी और 21वीं सदी शहरों की सदी होगी।

भारत में शहरी क्षेत्रों को दो महानगरों के आधार पर परिभाषित किया गया है। पहले, राज्य सरकार विद्यमान बसावट तक नगरपालिका स्थित कॉर्पोरेशन नगरपालिका परिषद् अधिसूचित कस्बा क्षेत्र समिति या नगर पंचायत आदि प्रदान करते हैं। ऐसी बसावट को शहरी क्षेत्रों की जनगणना परिभाषा में सांवधिक या नगरपालिका कस्बों के रूप में जाना जाता है। द्वितीय यदि किसी बसावट की शहरी सिविक स्थिति नहीं है लेकिन जनसांख्यिकी और आर्थिक मानदण्ड पूरा करते हैं जैसे 5000 से अधिक की जनसंख्या, घनत्व 4000 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी. से अधिक और गैर-कृषि क्षेत्र में 75 प्रतिशत पुरुष श्रमशक्ति लगी हो, उसे जनगणना कस्बे के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। सूचित किया गया कि भारत में 2001-2011 (अनुलग्नक-1) के दशक में 242 सांवधिक कस्बों की वृद्धि सहित 2011 में 4041 सांवधिक कस्बे हैं। 2011 की जनगणना के डाटा में तमिलनाडु में सांवधिक कस्बों (721)की उच्चतम संख्या सूचित की गई है उसके बाद उत्तर प्रदेश (646), मध्यप्रदेश (364), महाराष्ट्र (256) और कर्नाटक (220) है। 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में 3894 सेंसस कस्बे हैं। 2011 में 1362 की बढ़ी वृद्धि पंजीकृत की गई है। पश्चिम बंगाल ने उच्चतम संख्या (780) सूचित की है तथा 2011 में 528 सेंसस कस्बों की उच्चतम वृद्धि भी केरल (2001 में 99 की तुलना में 2011 में 461), तमिलनाडु (2001 में 111 की तुलना में 2011 में 376) महाराष्ट्र (2001 में 66 की तुलना में 2011 में 267) भी सेंसस कस्बों की संख्या में उच्चतम वृद्धि प्राप्त की है।

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