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Home » मुगल काल में साहित्य FOR UPSC IN HINDI

मुगल काल में साहित्य FOR UPSC IN HINDI

  • Posted by teamupsc4u
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भारत के तैमूरी बादशाह साहित्य के पोषक थे तथा इसकी विभिन्न शाखाओं के विकास को बहुत प्रोत्साहन देते थे। अकबर के संरक्षण में बहुत-से विद्वान् हुए तथा उन्होंने दिलचस्प एवं महत्वपूर्ण पुस्तकें लिखीं। अकबर का एक समकालीन व्यक्ति माधवाचार्य, जो त्रिवेणी का एक बगाली कवि तथा चडी-मंगल का लेखक था, बादशाह की विद्या के पोषक के रूप में बहुत प्रशंसा करता है।

अकबर के शासनकाल के फारसी साहित्य को हम तीन भागों में बाँट सकते हैं-

  1. ऐतिहासिक पुस्तके,
  2. अनुवाद तथा
  3. काव्य और पद्य।

उस शासनकाल की प्रमुख ऐतिहासिक पुस्तके हैं- मुल्ला दाऊद की तारीखे-अल्फी, अबुलफजल की आईने-अकबरी तथा अकबरनामा, बदायूनीं की मुख्तखाबुत्-तबारीख, निजामुद्दीन अहमद की तबकाते-अकबरी, फैजी-सरहिन्दी का अकबरनामा तथा अब्दुल वाकी की मआसिरे-रहीमी जो अब्दुर्रहीम खाने-खानान के संरक्षण में संकलित हुई। उस शासनकाल का (फारसी में) सबसे योग्य लेखक अबुल फजल था, जो विद्वान्, कवि, निबन्धकार, समालोचक तथा इतिहासकार था। बादशाह की आज्ञा से संस्कृत एवं अन्य भाषाओं की बहुत-सी पुस्तकों का फारसी में अनुवाद हुआ। बहुत-से मुसलमान विद्वानों ने महाभारत के विभिन्न भागों का फारसी में अनुवाद किया तथा उनका रज्मनामा के नाम से संकलन हुआ। चार वर्षों तक परिश्रम करने के बाद बदायूनी ने 1589 ई. में रामायण का अनुवाद पूरा किया। फारसी में हाजी इब्राहिम सरहिन्दी ने अथर्ववेद का, फैजी ने गणित की एक पुस्तक लीलावती का, मुकम्मल खाँ गुजराती ने जयोतिष शास्त्र की एक पुस्तक तजक का, अबुर्रहीम खाने-खानान ने वाकियाते-बाबरी का तथा मौलाना शाह मुहम्मद शाहाबादी ने कश्मीर के इतिहास का अनुवाद किया। कुछ ग्रीक तथा अरबी पुस्तकों का भी फारसी में अनुवाद हुआ। कुछ कवियों या पद्यकारों ने अकबर के संरक्षण में अच्छी पुस्तकें लिखीं। पद्य लिखने वालों में सबसे विख्यात गिजाली था। उसके बाद अबुल फजल के भाई फैजी का स्थान आता था। अबुल फजल अनवर-ए-साहिली के नाम से पंचतंत्र को अनुदित किया। फैजी ने नल दमयन्ती की कहानी का फारसी में रूपान्तरण किया। अन्य प्रसिद्ध कवि थे- निशापुर का मुहमद हुसैन नाजिरी, जिसने बहुत अच्छी गजले लिखीं तथा शीराज का सैयद जमालुद्दीन उर्फी, जो अपने समय में कसीदों का विख्यात लेखक था।

मुगलकाल में सामाजिक और आर्थिक जीवन Social And Economic Life During The  Mughal Period | Vivace Panorama

जहाँगीर की अच्छी साहित्यिक अभिरुचि थी। उसने भी विद्वानों का पोषण किया। सामग्री और शैली की दृष्टि से उसकी आत्मकथा का बाबर की आत्मकथा के बाद ही स्थान है। उसके दरबार को सुशोभित करने वाले विद्वानों में, जिनकी एक विस्तृत सूची इकबालनामाए-जहाँगीरी में है, यहाँ हम रगियास बेग, नकीब खाँ, मुतमिद खाँ नियामतुल्ला तथा अब्दुल हक दिहलवी के नामों का उल्लेख कर सकते हैं। जहाँगीर के राज्यकाल में कुछ ऐतिहासिक पुस्तकें लिखी गयीं, जिनमें मासिरे-जहाँगीरी, इकबाल-नामाए-जहाँगीरी तथा जब्दुत्-तवारीख सबसे अधिक महत्वपूर्ण हैं। शाहजहाँ ने विद्वानों का पोषण करने में अपने पूर्वगामियों का अनुसरण किया। उसके दरबार में बहुत-से कवियों एवं ब्रह्मज्ञानियों के अतिरिक्त कुछ प्रसिद्ध इतिहास लेखक भी थे, जिनमें हैं-पादशाहनामा का लेखक अब्दुल हमीद लाहौरी, एक अन्य पादशाहनामा का लेखक अमीनाई कजवीनी, शाहजहाँनामा का लेखक इनायत खाँ तथा अमले-सालिह का लेखक मुहम्मद सालिह मुख्य है। ये सब शाहजहाँ के राज्यकाल के इतिहास के महत्त्वपूर्ण साधन हैं। शाहजादा दाराशिकोह की विद्वत्तापूर्ण पुस्तके, जिनका जिक्र पहले किया जा चुका है, फारसी साहित्य के गौरव ग्रंथ हैं। औरंगजेब एक उत्साही सुन्नी तथा मुस्लिम धर्मशास्त्र एवं न्यायशास्त्र का एक आलोचनात्मक विद्वान था। उसकी कविता के प्रति अभिरुचि नहीं थी। वह अपने राज्यकाल को इतिहास लिखवाने के विरुद्ध था। इस कारण खाफ़ी खाँ की मुन्तखाबुल्लुबाब को गुप्त रूप से लिखा जाना पड़ा। फिर भी इस प्रकार की कुछ प्रसिद्ध पुस्तके हैं, जैसे- मिर्जा मुहम्मद काजिम का आलमगीरनामा, मुहम्मद साकी का मुआसिरे-आलमगीरी, सुजान राय खत्री का खुलासत्-उत्-तवारीख, भीमसेन का नुश्क-ए-दिलकुशा तथा ईश्वरदास का फतूहात-ए-आलमगीरी।

अकबर के द्वारा शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित हो गयी थी। साथ ही उस युग के धार्मिक आन्दोलनों के उदार विचारों का प्रचार सन्त उपदेशकों का एक समूह जनता की समझ में आ जाने वाली भाषा में कर रहा था। इन बातों से प्रोत्साहन पाकर जनता की प्रतिभा बहुमुखी होकर प्रस्फुटित हुई। फलस्वरूप सोलहवीं तथा सत्रहवीं सदियाँ हिन्दुस्थानी साहित्य का स्वर्णिम युग बन गयीं। 1526 ई. के बाद का प्रथम उल्लेखनीय लेखक मलिक मुहमद जायसी था। उसने 1540 ई. में पद्मावत नामक उत्तम दार्शनिक महाकाव्य लिखा, जिसमें मेवाड़ की रानी पद्मिनी की कहानी रूपक में बाँधकर दी गयी है। हिन्दी काव्य में अकबर की अत्याधिक दिलचस्पी थी तथा वह उसका पोषण करता था। इससे हिन्दी साहित्य को बहुत प्रोत्साहन मिला। बादशाह के दरबारियों में बीरबल, जिसे उसने कविप्रिय की उपाधि दी थी, एक प्रसिद्ध कवि था। राजा मानसिंह भी हिन्दी में पद्य लिखा करता था तथा विद्या का पोषक था। अकबर के मंत्रियों में सबसे प्रसिद्ध लेखक अब्दुर्रहीम खाने-खानान था, जिसके दोहे आज भी सम्पूर्ण उत्तर भारत में दिलचस्पी एवं प्रशंसा के साथ पढ़े जाते हैं। नरहरि, जिसे बादशाह ने महापात्र की उपाधि दी थी, हरीनाथ तथा गज भी उसके दरबार के उल्लेखनीय लेखक थे।

उस समय का अधिकतर काव्य-साहित्य धार्मिक था तथा कृष्णपूजा अथवा रामभक्ति की व्याख्या करता था। कृष्णपूजा के बहुत-से लेखक ब्रजभूमि में हुए, जो मोटे तौर पर यमुना घाटी है। वहाँ इसका अद्भुत विकास हुआ। बल्लभाचार्य तथा उनके पुत्र बिट्ठलनाथ के आठ शिष्य थे, जिनका सम्मिलित नाम अष्टछाप था। इनमें सबसे उल्लेखनीय थे आगरे के चक्षुहीन कवि- सूरदास। वे ब्रजभाषा में लिखते थे। उन्होंने अपने सूरसागर में कृष्ण के प्रारम्भिक जीवन की क्रीडाओं का वर्णन किया और कृष्ण एवं उनकी प्रेयसी राधा की सुन्दरता पर बहुत से पद्य रचे। इस विचारधारा के अन्य महत्वपूर्ण कवि थे रास-पंचाध्यायी के रचयिता नन्ददास, गद्यग्रथ चौरासी वैष्णवों की वार्ता के लेखक बिट्ठलनाथ, परमानन्ददास, कुम्भनदास तथा प्रेमवर्तिका के लेखक रसखनन (बिट्ठलनाथ के एक मुस्लिम शिष्य)। रामभक्ति के लेखकों में सबसे प्रसिद्ध तुलसीदास (1532-1623 ई.) थे, जो बनारस में रहते थे। यशोमन्दिर में वे पहुँच के बाहर अकेले अपने स्थान पर विराजमान हैं। वे केवल उच्च कोटि के कवि ही नहीं थे, बल्कि हिन्दुस्तान के लोगों के आध्यात्मिक गुरू भी थे। उनका नाम यहाँ घर-घर में लिया जाता है तथा लाखों मनुष्य उनकी स्मृति को अपने मानस में संजोए श्री रामचरित मानस की पंक्तियों को दुहराते रहते हैं। उनकी सबसे प्रसिद्ध रचना रामचरितमानस है जिसे सर जार्ज ग्रियर्सन ने उचित ही हिन्दुस्तान के करोड़ों लोगों की एकमात्र बाइबिल बतलाया है। ग्राउज ने भी तुलसीदास की रामायण के अपने अनुवाद में कहा है कि उनकी पुस्तक राजमहल से लेकर झोपड़ी तक प्रत्येक व्यक्ति के हाथों में है तथा क्या ऊँच क्या नीच, क्या धनी क्या रंक, क्या युवा क्या वृद्ध, हिन्दू जाति का प्रत्येक वर्ग इसे पढ़ता, सुनता तथा इसकी प्रशंसा करता है।

मुगल काल में साहित्य Literature During the Mughal Period | Vivace Panorama

इस युग में काव्यकला को क्रमबद्ध करने के प्रथम प्रयास भी हुए। केशवदास (मृत्यु 1617 ई.) जहाँगीर के समय के एक सुविख्यात कवि थे। जहाँगीर का भाई दानियाल हिन्दी का अच्छा कवि था। सुन्दर कविराय, मतिराम, बिहारी और कवीन्द्र आचार्य शाहजहाँकालीन प्रसिद्ध कवि है। जिन्होंने रीतिकालीन हिन्दी साहित्य की श्रीवृद्धि करने में सराहनीय योगदान दिया। शाहजहाँ के दरबार के अन्य प्रसिद्ध कवि हरीनाथ, शिरोमणि मिश्र और वेदांगराय थे।बंगाल में यह युग वैष्णव साहित्य के अद्भुत विकास के लिए प्रसिद्ध था। इसकी विभिन्न शाखाओं- जैसे कछे पद, गीत और चैतन्यदेव की जीवनियाँ- ने बंगाल के जन-गण-मन को प्रेम एवं उदारता की भावनाओं से ही नहीं भर दिया, बल्कि उस युग में इस प्रदेश के सामाजिक जीवन के दर्पण के रूप में भी वे बने रहे हैं। सबसे प्रमुख वैष्णव लेखक थे कृष्णदास कविराज (बर्दवान के झमालपुर के एक वैद्य परिवार में 1517 ई. में जन्म), जो चैतन्य चरितामृत नाम चैतन्य की सबसे महत्वपूर्ण जीवनी के लेखक थे; चैतन्य भागवत के लेखक वृन्दावन दास (1507 ई. में जन्म), जिनकी पुस्तक चैतन्य देव के जीवन पर एक उत्तम पुस्तक होने के अतिरिक्त उनके समय के बंगाली समाज के सम्बन्ध में ज्ञान का भंडार है; चैतन्यमंगल के लेखक जयानन्द (1513 ई. में जन्म) जिनकी पुस्तक जीवनचरितात्मक ग्रंथ है और चैतन्यदेव के जीवन के विषय में कुछ नयी बातें बतलाती है; त्रिलोचन दास (बर्दवान के तीस मील उत्तर कोवग्राम नामक गाँव में 1523 ई. में जन्म), जो चैतन्यमंगल नाम के ही चैतन्य देव की एक अत्यन्त लोकप्रिय जीवनी के लेखक थे तथा भक्तिरत्नाकर के लेखक नरहरि चक्रवर्ती, जिनकी पुस्तक पंद्रह परिच्छेदों में लिखी गयी चैतन्यदेव की एक विस्तृत जीवनी है तथा महत्त्व की दृष्टि से इसका स्थान कृष्णदास कविराज की रचना के बाद ही आया हुआ समझा जाता है। इस युग में महाकाव्यों और भागवत के बहुत-से अनुवाद हुए तथा चंडी देवी एवं मनसा देवी की प्रशंसा में पुस्तके रची गयीं। इन ग्रंथों में सबसे महत्वपूर्ण थे- काशीराम दास का महाभारत तथा मुकुन्दराम चक्रवर्ती का कविककण-चंडी, जिसकी लोकप्रियता आज भी बंगाल में वैसी ही है, जैसी ऊपरी भारत में तुलसीदास की प्रसिद्ध पुस्तक की। मुकुन्दराम के ग्रंथ में उसके समय के बंगाल के लोगों की सामाजिक एवं आर्थिक दशा का स्पष्ट चित्र है। यही कारण है कि प्रोफेसर कॉवेल ने उसे बंगाल का क्रैब बतलाया है तथा डाक्टर ग्रियर्सन के विचार में उसकी कविता स्कूल (किसी विशेष विचाराधारा) से नहीं, बल्कि हृदय से निकलती है तथा सच्ची कविता और वर्णनात्मक शक्ति से अलंकृत संदर्भों से भरी हुई है।

बादशाहों के पुस्तक-प्रेम के कारण पुस्तकालय स्थापित हुए, जिनमें अनगिनत बहुमूल्य हस्तलिखित ग्रंथ भरे पड़े थे। अकबर के पुस्तकालय में विशाल संग्रह था तथा पुस्तकों का भिन्न-भिन्न विषयों के अनुसार उचित रूप से वर्गीकरण किया गया था।

सुन्दर लिखावट की कला उत्तमता की अच्छी अवस्था पर थी। अकबर के दरबार के प्रसिद्ध ग्रंथकर्ताओं में, जिनकी एक सूची आईने-अकबरी में है, सबसे प्रमुख कश्मीर का मुहम्मद हुसैन था, जिसे जरींकलम की उपाधि मिली थी।

औरंगजेब के शासनकाल में राजसंरक्षण हटा लेने के कारण हिन्दी साहित्य का विकास अवरुद्ध हो गया। इस युग में उत्तरी भारत में अधिक उर्दू कविता भी नहीं लिखी गयी। किन्तु दक्कन में उर्दू पद्य के कुछ प्रसिद्ध लेखक हुए।

उत्तरकालीन मुगल शासन के गड़बड़ी के दिनों में भी साहित्यिक कार्य एकदम ठप नहीं पड़ गया। बहादुर शाह तथा मुहम्मद शाह के समान बादशाह, मुर्शिद कुली जाफर खाँ एवं अलीवर्दी खाँ के समान सुबेदार, नदिया के राजा कृष्णचन्द्र और वीरभूम के असादुल्ला के समान तथा कुछ अन्य जमींदार विद्वानों का पोषण करते थे। रामप्रसाद के भजनों को छोड़कर इस युग का साहित्य प्रायः तुच्छ भाव एवं दूषित प्रवृत्ति का होता था। इस युग में हिन्दू तथा मुसलमान दोनों में स्त्री-शिक्षा अज्ञात नहीं थी। जान मुहम्मद की, जो हिन्दू से मुसलमान बना था, दो पुत्रियाँ स्कूल भेजी गयीं तथा उन्होंने विद्या में कुछ निपुणता प्राप्त की। कोकी जिउ हस्तलिपि एवं रचना में अपने भाईयों से कहीं चढ़कर थी। बंगाल में हमें शिक्षित महिलाओं के कई उदाहरण मिलते हैं। उदारहणत: कलकत्ते में शोभाबाजार के राजा नवकृष्ण की पत्नियाँ अपनी पढ़ने की क्षमता और रुचि के लिए प्रसिद्ध थीं तथा पूर्व बंगाल की आनन्दमयी काफी प्रसिद्धि की कवियित्री थीं।हिन्दी के साथ ही उर्दू का भी मध्ययुग में विकास हुआ। रेखता के रूप में उर्दू कविता को सबसे पहले दक्षिण में मान्यता मिली। भारतीय मुसलमानों को फारसी के रूप में अपनी मातृभाषा बनाए रखना कठिन हो गया। फलत: 18वीं शती के प्रारम्भ में भारतीय मुसलमानों के घरों और दरबारों में हिन्दवी बोली जाने लगी। इसी प्रक्रिया में उर्दू का उद्भव और विकास हुआ। रेखता में लिखित सबसे प्राचीन पुस्तक मीरातुल आशकीन एक रहस्यात्मक गद्य ग्रन्थ है। ख्वाजा बन्दानवाज गेसूदराज इस ग्रन्थ के लेखक है। इस ग्रन्थ की लिपि पारसी है। वहमनी राज्य के विघटन के पश्चात् दक्षिण के मुस्लिम सुल्तानों ने विशेषकर बीजापुर और गोलकुण्डा के सुल्तानों ने उर्दू को संरक्षण दिया। उत्तर में सम्राट् मुहम्मदशाह के दरबार में लगभग 18वीं सदी के मध्य में मान्यता मिली। मुहम्मदशाह (1718-48 ई.) प्रथम मुगल शासक था जिसने कि दक्खिन के सुविख्यात कवि समसुद्दीन वली को दरबार में अपनी कविताएँ सुनाने को आमन्त्रित कर उर्दू को प्रोत्साहन दिया था। वली 1722 ई. में दिल्ली आ गए थे। उसके पूर्व भी वे दिल्ली आ चुके थे। दिल्ली आने पर उन्होंने दक्खिनी मुहावरों के स्थान पर दिल्ली के मुहावरों का प्रयोग किया। इससे उर्दू को नया आयाम मिला। 18वीं सदी में इस परम्परा का और विकास हुआ। हातिम अबू हातिम, नाजी मजम और मजहर दिल्ली के प्रथम उर्दू कवि थे। दूसरी पीढ़ी के उर्दू कवियों में मीर तर्की, मीर ख्वाजा, मीर दर्द सौ, सोज, शदी और इंशा ने उर्दू को और अधिक परिष्कृत किया। परवर्ती शताब्दी में उर्दू विकास के पथ पर और आगे बढ़ी। कालान्तर में उर्दू सरकारी काम-काज की भाषा के रूप में स्वीकार कर ली गई। इससे उसके विकास को और प्रोत्साहन मिला।

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