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ECONOMICS

Home » राष्ट्रीय कृषि नीति

राष्ट्रीय कृषि नीति

  • Posted by teamupsc4u
  • Categories ECONOMICS, ECONOMICS NOTES
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राष्ट्रीय कृषि नीति 2007

  • राष्ट्रीय कृषि आयोग की सिफारिशों एवं राज्यों के परामर्श पर सरकार द्वारा 6 अगस्त, 2007 को राष्ट्रीय कृषक नीति, 2007 को मंजूरी दे दी।
  • राष्ट्रीय कृषक नीति में अन्य बातों के साथ-साथ फार्म क्षेत्र के विकास के लिए सम्पूर्ण पहुंच प्रदान कर दी है। राष्ट्रीय कृषि नीति की मुख्य बातें निम्नलिखित है –
  • भूमि जल एवं जैव विविधता का संरक्षण एवं संवर्धन |
  • कृषि सहायक क्रियाएं (बीज, सिंचाई, उर्वरक, मशीनरी, ऋण) का विकास |
  • कृषकों के लिए ‘जोखिम प्रबंध’ के उपाय |
  • भूमि सुधार |
  • सभी को पोषण सुरक्षा प्रदान करना |
  • युवाओं को कृषि की ओर आकर्षित करना |
  • कृषि स्नातकों को उद्यमी के रूप में विकसित करना |
  • कृषि को राज्य सूची से हटाकर समवर्ती सूची में रखना |
  • आउटसोर्सिंग के तहत भारत को कृषि का वैश्विक केंद्र बनाना |
  • कृषकों को सशक्त करने हेतु भूमि सुधार, पशुधन सुधार, मृतस्य पालन, मुर्गी पालन जैसे उपाय अपनाना |
  • न्यूनतम समर्थन मूल्य को कारगर और उपयोगी बनाना |
  • सामुदायिक खाद्यान्न बैंकों का निर्माण करना |
  • ग्रामीण क्षेत्रों में गैर कृषि रोजगार के अवसरों का विकास |
  • कृषकों के लिए सामाजिक सुरक्षा |
  • जन वितरण प्रणाली के तहत ‘खाद्यान्न सुरक्षा बास्केट’ का विस्तार |

भारतीय कृषि एवं उसकी प्रकृति

भारतीय कृषि एवं उसकी प्रकृति

  • वर्ष 2011 की जनगणना के अनुसार भारत की जनसंख्या बढ़कर एक अरब 21 करोड़ से अधिक हो गई है इस बढ़ती हुई जनसंख्या की खाद्यान्न आवश्यकता की पूर्ति के संदर्भ में भारतीय कृषि का महत्व स्वभाविक रुप से बढ़ जाता है देश की कुल राष्ट्रीय आय में कृषि की भागीदारी लगभग 14.5 प्रतिशत है |
  • यद्यपि यह सेवा क्षेत्र औद्योगिक क्षेत्र की तुलना में काफी कम है किंतु भारतीय कृषि के महत्व को सिर्फ जीडीपी में भागीदारी के आधार पर नहीं आंका जाना चाहिए| भारतीय आर्थिक विकास के बावजूद देश की कुल श्रमशक्ति का लगभग 52 प्रतिशत भाग अभी भी रोजगार के लिए कृषि पर निर्भर है |
  • यही नहीं देश के औद्योगिक विकास में भी कृषि का बहुत बड़ा महत्व है सूती वस्त्र उद्योग, जूट उद्योग, चीनी उद्योग, चाय-कॉफी, खाद्य तेल आदि उद्योगों के कच्चे माल की आपूर्ति कृषि क्षेत्र से ही होती है, देश के कुल निर्यात में भी कृषि की भागीदारी 10% से अधिक है |
  • चाय, तंबाकू, गरम मसाले इत्यादि कई कृषि उत्पादों का भारत प्रमुख निर्यातक है यह प्रत्यक्ष रुप से देश में बैंकिंग क्षेत्र तथा कई उद्योगों के विकास में भी सहायक है | कृषि क्षेत्र के उपरोक्त महत्व के कारण ही भारतीय कृषि को भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ की हड्डी कहा जाता है |

भारतीय कृषि की प्रकृति

  • भारत में हरित क्रांति की सफलता के बावजूद अब भी भारतीय कृषि कई समस्याओं से ग्रसित है| यहां भूमि अधिकार के संबंध में अब भी अर्ध्द सामंती व्यवस्था पाई जाती है| काश्तकारों को अभी भूमि संबंधी अधिकार पूर्ण रूप से प्राप्त नहीं हुए हैं |
  • कृषि साख से जुड़ी हुई कई समस्याएं हैं; जैसे-छोटे एवं सीमांत किसान कृषि साख के लिए परंपरागत रुप से स्थानीय साहूकारों एवं महाजनों पर निर्भर हैं |
  • कृषि क्षेत्र में श्रम की स्थिति भी अच्छी नहीं है, अधिकांश कृषि श्रमिकों की आय काफी कम है यदि हरित-क्रांति के क्षेत्रों को छोड़ दिया जाए तो अब भी कई भागों में परंपरागत कृषि पद्धति को अपनाया जा रहा है |
  • भारतीय कृषि बाढ़, सूखा जैसी प्राकृतिक समस्याओं से भी ग्रसित है आज भी भारतीय कृषि उत्पादन का स्तर बहुत हद तक मानसून तय करता है यही कारण है कि भारतीय कृषि को मानसून का जुआ कहा जाता है |

कृषि के निर्धारण तत्व

  • किसी भी देश में कृषि कार्य कई कारकों द्वारा निर्धारित होता है इन्हें हम प्राकृतिक, सामाजिक, ऐतिहासिक, आर्थिक एवं प्रशासनिक कार्यों के अंतर्गत शामिल कर सकते हैं |
  • किसी क्षेत्र की प्राकृतिक विशेषता फसल प्रारूप के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है; जैसे-अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में धान, जूट जैसी फसलों की खेती होती है, वहीं अपेक्षाकृत उसके एवं अर्ध शुष्क क्षेत्रों में ज्वार, बाजरा जैसे मोटे अनाजों की खेती होती है |
  • इनके अलावा मिट्टी के प्रकार, तापमान, आर्द्रता इत्यादि का प्रभाव भी फसल प्रारूप पर पड़ता है भू-धारण प्रणाली जैसे ऐतिहासिक कारकों का प्रभाव भी कृषि के निर्धारण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है |
  • फसलों के ढांचे को निर्धारित करने में किसानों की आय, कृषि सहायक वस्तुओं की कीमत आदि की भी भूमिका होती है इसके अलावा परंपरा रीति रिवाज इत्यादि का भी प्रभाव कृषि पर पड़ता है |

भूमि सुधार

  • भारत में परंपरागत भू-धारण व्यवस्था एक और जहां संवैधानिक रूप से सामाजिक न्याय के विपरीत की वहीं दूसरी ओर कृषि के विकास में भी बाधक थी |
  • भूमि सुधार के अंतर्गत बिचौलियों की समाप्ति काश्तकारी सुधार, जोतों के आकार में सुधार के लिए चकबंदी, भू-धारिता की सीमा निर्धारित करने के लिए हटबंदी जैसे-उपाय किए गए |
  • परंपरागत रूप से बिट्रिश काल से चली आ रही जमीनदारी, महालवाड़ी एवं रैयतवाड़ी प्रथा को समाप्त कर दिया गया |
  • जमींदारी उन्मूलन की शुरुआत 1950 में उत्तर प्रदेश से हुई तथा 1970 तक देश के सभी राज्यों में जमींदारी प्रथा समाप्त कर दी गई |

सिंचाई परियोजनाओं का वर्गीकरण

योजना आयोग द्वारा

  1. लघु सिंचाई परियोजना -2000 हेक्टेयर से कम
  2. मध्य सिंचाई परियोजना – 2000-10000 हजार हेक्टेयर
  3. बड़ी सिंचाई परियोजना – 10000 हेक्टेयर से अधिक

भारत में कृषि जोत का आकार

  1. सीमांत जोत – एक हेक्टेयर से कम
  2. लघु जोत – 1.2 हेक्टेयर
  3. मध्यम – 4-10 हेक्टेयर
  4. बड़ी जोत – 10 हेक्टेयर से अधिक

उत्पादन से संबन्धित विविध क्रांतियां

उत्पादन से संबन्धित विविध क्रांतियां

काली क्रांति (Black Revolution)पेट्रोलियम उत्पादन
2नीली क्रांति (Blue Revolution)  मछली उत्पादन
3भूरी क्रान्ति (Brown Revolution)कोको उत्पादन
4स्वर्ण फाइबर क्रांति (Golden Fibre Revolution)  जूट उत्पादन
5गोल्डन क्रांति (Golden Revolution)समस्त बागवानी/हनी उत्पादन
6ग्रे क्रांति (Grey Revolution)उर्वरक उत्पादन
7गुलाबी क्रांति (Pink Revolution)प्याज/औषधि/झींगा उत्पादन
8लाल क्रांति (Red Revolution)मांस/टमाटर उत्पादन
9चांदी फाइबर क्रांति (Silver fibre Revolution)कपास उत्पादन/अंडा उत्पादन
10श्वेत क्रांति (White Revolution)दुग्ध उत्पादन
11पीली क्रांति (Yellow Revolution)तिलहन उत्पादन
12सदाबहार क्रांति (Evergreen Revolution)कृषि का समस्त विकास
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