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Home » संसद में विधेयक का अधिनियम बनना FOR UPSC IN HINDI

संसद में विधेयक का अधिनियम बनना FOR UPSC IN HINDI

  • Posted by teamupsc4u
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विधेयक किसी विधायी प्रस्ताव का प्रारूप होता है। अधिनियम बनने से पूर्व विधेयक को कई प्रक्रमों से गुजरना पड़ता है।

प्रथम वाचन

विधान संबंधी प्रक्रिया विधेयक के संसद की किसी भी सभा – लोक सभा अथवा राज्य सभा में पुरःस्थापित किये जाने से आरम्भ होती हैं। विधेयक किसी मंत्री या किसी गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पुरःस्थापित किया जा सकता है। मंत्री द्वारा पुरःस्थापित किये जाने पर विधेयक सरकारी विधेयक और गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पुरःस्थापित किये जाने पर गैर-सरकारी विधेयक कहलता है।

विधेयक के प्रभारी सदस्य के लिए विधेयक को पुरःस्थापित करने हेतु सभा की अनुमति प्राप्त करना आवश्यक है। यदि सभा विधेयक को पुरःस्थापित करने की अनुमति दे दे तो विधेयक पुरःस्थापित किया जा सकता है। यह प्रक्रम विधेयक का प्रथम वाचन कहलता है। यदि किसी विधेयक को पुरःस्थापित करने की अनुमति के प्रस्ताव का विरोध किया जाता है तो अध्यक्ष अपने विवेकानुसार, विधेयक के प्रस्ताव का विरोध करने वाले सदस्य को और प्रस्ताव प्रस्तुत करने वाले सदस्य को स्पष्टीकरण के लिए संक्षिप्त वक्तव्य देने की अनुमति दे सकता है। जब विधेयक को पुरःस्थापित करने की अनुमति का इस आधार पर विरोध किया जाये कि विधेयक ऐसे विधान का सूत्रपात करता है जो सभा की विधायी शक्ति से परे है तो अध्यक्ष उस पर पूरी चर्चा की अनुमति दे सकता है। तत्पश्चात्, इस मामले को सभा के मतदान के लिए रखा जाता है। हालांकि किसी वित्त विधेयक या विनियोग विधेयक के पुरःस्थापन हेतु अनुमति के प्रस्ताव को उसी समय सभा के मतदान के लिए रखा जाता है।

राजपत्र में प्रकाशन

विधेयक पुरःस्थापित किये जाने के बाद राजपत्र में प्रकाशित कर दिया जाता है। कोई विधेयक अध्यक्ष की अनुमति से पुरःस्थापन से पूर्व भी राजपत्र में प्रकाशित किया जा सकता है।

ऐसे मामलों में विधेयक को सभा में पुरःस्थापित करने की अनुमति नहीं मांगी जाती है और विधेयक सीधे पुरःस्थापित कर दिया जाता है।

विधेयक का स्थायी समिति को भेजा जाना

किसी भी सभा में विधेयक पुरःस्थापित किये जाने के पश्चात् संबंधित सभा का पीठासीन अधिकारी जांच तथा प्रतिवेदन प्रस्तुत करने हेतु इसे संबंधित समिति को भेज सकता है।

यदि किसी विधेयक को स्थायी समिति को भेजा जाता है तो समिति उस विधेयक के आम सिद्धांतों और खण्डों पर विचार करेगी और उस पर अपना प्रतिवेदन प्रस्तुत करेगी। समिति संबंधित विषय पर विशेषज्ञ की राय अथवा विषय में अभिरूचि रखने वाले लोगों की राय भी ले सकती है। विधेयक पर इस प्रकार से विचार किए जाने के पश्चात् समिति सभा को अपना प्रतिवेदन सौंपती है। समिति के प्रतिवेदन का स्वरूप प्रत्ययकारी होने के कारण उसे समितियों के सुविचारित परामर्श के रूप में लिया जाता है।

द्वितीय वाचन

द्वितीय वाचन को विधेयक के दो प्रक्रमों में बांटा जा सकता है।

पहला प्रक्रमः पहले प्रक्रम में विधेयक पर सामान्य चर्चा होती है जब विधेयक के सिद्धान्तों पर चर्चा की जाती है। इस प्रक्रम में सभा विधेयक को सभा की प्रवर समिति या दोनों सभाओं की संयुक्त समिति को सौंप सकती है अथवा उस पर राय जानने के लिए उसे परिचालित कर सकती है या उस पर सीधे ही विचार कर सकती है।

यदि कोई विधेयक प्रवर/संयुक्त समिति को सौंपा जाता है तो समिति सभा के समान विधेयक पर खण्डवार विचार करती है। समिति के सदस्य विभिन्न खण्डों पर संशोधन प्रस्तुत कर सकते हैं। समिति उस विधान में दिलचस्पी लेने वाले संगठनों, सार्वजनिक निकायों अथवा विशेषज्ञों का साक्ष्य भी ले सकती है। विधेयक पर इस प्रकार विचार किये जाने के बाद समिति अपना प्रतिवेदन सभा को प्रस्तुत करती है जो समिति द्वारा यथा प्रतिवेदित विधेयक पर पुनः विचार करती है। यदि किसी विधेयक को उस पर राय जानने के लिए परिचालित किया जाता है तो ऐसी राय राज्य/संघ राज्य क्षेत्रों के माध्यम से प्राप्त की जाती है। इस प्रकार से प्राप्त राय को सभा पटल पर रखा जाता है। तत्पश्चात् विधेयक के बारे में अगला प्रस्ताव उसे प्रवर/संयुक्त समिति को भेजने के लिए होना चाहिए। इस चरण में विधेयक पर विचार करने का प्रस्ताव प्रस्तुत करना साधारणतः अनुमन्य नहीं होता।

दूसरा प्रक्रमः द्वितीय वाचन के दूसरे प्रक्रम में विधेयक (या प्रवर/संयुक्त समिति द्वारा यथा प्रतिवेदित रूप में विधेयक, जैसी भी स्थिति हो) पर खण्डवार विचार किया जाता है।

विधेयक के प्रत्येक खण्ड पर चर्चा होती है और इस प्रक्रम में खण्डों पर संशोधन प्रस्तुत किए जाते हैं। किसी खंड पर प्रस्तुत किए गए परन्तु वापस नहीं लिए गए संशोधनों को सभा द्वारा संबंधित खंड का निपटान किए जाने से पहले सभा में मतदान के लिए रखा जाता है। सभा में उपस्थित तथा मतदान करने वाले सदस्यों द्वारा बहुमत से स्वीकार करने के पश्चात् संशोधन विधेयक का अंग बन जाते हैं। खंडों के पश्चात् अनुसूचियां यदि कोई हों तो, खण्ड 1, अधिनियमन सूत्र तथा विधेयक का पूरा नाम सभा द्वारा स्वीकृत करने के पश्चात् विधेयक का द्वितीय वाचन पूरा हो जाता है।

 तृतीय वाचन

इसके पश्चात् प्रभारी सदस्य यह प्रस्ताव कर सकता है कि विधेयक पारित किया जाये। यह विधेयक का तृतीय वाचन कहलाता है। इस प्रक्रम पर वाद-विवाद विधेयक के समर्थन या अस्वीकृति के लिए दिये गये तर्कों तक ही सीमित रहता है और विधेयक के ब्यौरों का उतना ही उल्लेख किया जाता है जितना कि नितान्त आवश्यक हो। इस प्रक्रम में केवल औपचारिक, शाब्दिक अथवा पारिणामिक संशोधन ही गृहीत किये जाते हैं। किसी सामान्य विधेयक को पारित करने के लिए उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का केवल साधारण बहुमत आवश्यक होता है। किन्तु संविधान में संशोधन करने वाले विधेयक के लिए सभा की समस्त सदस्य-संख्या के बहुमत तथा प्रत्येक सभा में उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों के दो-तिहाई से अन्यून बहुमत की आवश्यकता होती है।

अन्य सभा में विधेयक

एक सभा द्वारा विधेयक पारित कर दिए जाने के बाद इसे सहमति प्रदान करने के संदेश के साथ दूसरी सभा को भेजा जाता है और वहां भी उसे पुरःस्थापन के चरण को छोड़कर उपरोक्त सभी चरणों से गुजरना पड़ता है।

धन विधेयक

जिन विधेयकों में विशेष रूप से करों के अधिरोपण तथा उत्सादन, संचित निधि में से धन के विनियोग आदि से संबंधित प्रावधान होते हैं, उन्हें धन विधेयक कहा जाता है। धन विधेयक केवल लोक सभा में प्रस्तुत किए जा सकते हैं। राज्य सभा, लोक द्वारा पारित धन विधेयक में संशोधन कर उसे वापस नहीं भेज सकती। यद्यपि, यह धन विधेयक में संशोधन की सिफारिश कर सकती है, परन्तु उसे प्राप्ति की तिथि से चौदह दिन के भीतर सभी धन विधेयक लोक सभा को लौटाने होते हैं। धन विधेयक के संबंध में राज्य सभा की किसी सिफारिश अथवा सभी सिफारिशों को स्वीकृत अथवा अस्वीकृत करना लोक सभा पर निर्भर करता है। यदि लोक सभा, राज्य सभा की किसी सिफारिश को स्वीकृत करती है तो धन विधेयक राज्य सभा द्वारा सिफारिश किये गये संशोधनों और लोक सभा द्वारा स्वीकृत रूप में संसद की दोनों सभाओं द्वारा पारित समझा जाता है। यदि लोक सभा, राज्य सभा द्वारा सिफारिश किये गये संशोधनों में से किसी को स्वीकार नहीं करती, तो धन विधेयक राज्य सभा द्वारा सिफारिश किये गये किन्हीं संशोधनों के बिना लोक सभा द्वारा पारित रूप में संसद की दोनों सभाओं द्वारा पारित समझा जाता है। यदि लोक सभा द्वारा पारित धन विधेयक राज्य सभा की सिफारिशों के लिए उसके पास भेजा जाता है और यदि राज्य सभा चौदह दिन की निर्धारित अवधि के भीतर धन विधेयक नहीं लौटाती तो विधेयक उक्त अवधि की समाप्ति के पश्चात् संसद की दोनों सभाओं द्वारा लोक सभा द्वारा पारित रूप में पारित समझा जाता है।

संसद में बजट

कल्याणकारी राज्यों के उभरने के साथ ही सरकारें, वस्तुतः मानव जीवन के प्रत्येक क्षेत्र पर ध्यान दे रही हैं। उन्हें कानून और व्यवस्था बनाए रखने, आर्थिक तथा सामाजिक बेहतरी हेतु योजनाओं के क्रियान्वयन के लिए अपने-अपने क्षेत्रों की रक्षा के वास्ते विभिन्न प्रकार के कार्य करने होते हैं। इसके अतिरिक्त वे लोगों को शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार तथा आवास जैसी सामाजिक सेवाएं प्रदान करती हैं। यह कहने की जरूरत नहीं है कि सरकार को इन कार्यों को प्रभावी रूप से करने के लिए पर्याप्त संसाधनों की आवश्यकता होती है। यह धन कहां से आएगा और कौन धन की स्वीकृति देगा ? सरकारी व्यय हेतु आवश्यक धनराशि देश के संसाधनों जैसे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष कर तथा लंबी और अल्प अवधि, दोनों प्रकार के ऋणों से जुटायी जाती है। भारत में राजस्व का मुख्य स्रोत सीमा शुल्क तथा उत्पाद शुल्क सहित व्यक्तियों तथा कंपनियों पर लगाया गया आयकर है।

बजट की आवश्यकता

ऐसा नहीं है कि सरकार अपनी इच्छा से जितना चाहे कर लगा सकती है, ऋण ले सकती है तथा धन खर्च कर सकती है। चूंकि संसाधनों की एक सीमा होती है, इसलिए विभिन्न सरकारी क्रियाकलापों हेतु संसाधनों के आवंटन की उचित बजटीय व्यवस्था की आवश्यकता पड़ती है। व्यय की प्रत्येक मद पर पूरी तरह विचार किया जाना चाहिए तथा एक निश्चित अवधि तक कुल परिव्यय निकाला जाना चाहिए। सरकार की स्थिरता के लिए विवेकपूर्ण व्यय अनिवार्य है तथा विवेकपूर्ण व्यय की पहली आवश्यकता समुचित आय है। अतः योजनाबद्ध व्यय तथा आय का सटीक अनुमान सुदृढ़ सरकारी वित्त के अपरिहार्य तत्व हैं।

वित्त पर संसदीय नियंत्रण

हमारी सरकार की संसदीय प्रणाली वेस्टमिनिस्टर मॉडल पर आधारित है। इसलिए संविधान ने वित्त संबंधी शक्तियां लोगों के निर्वाचित प्रतिनिधियों को सौंपी हैं जिससे कि प्रतिनिधित्व के बिना कराधान नहीं का सिद्धान्त सही सिद्ध होता है। विधानमंडल की स्वीकृति के लिए बजट तैयार करना केन्द्र सरकार तथा राज्य सरकारों, का संवैधानिक दायित्व है। कराधान पर विधायी विशेषाधिकार, व्यय पर विधायी नियंत्रण तथा वित्तीय मामलों पर कार्यपालिका द्वारा पहल संसदीय वित्तीय नियंत्रण प्रणाली के कुछ मूलभूत सिद्धान्त हैं।

भारत के संविधान में ऐसे विशेष उपबंध हैं, जिनमें इन सिद्धान्तों का उल्लेख है। उदाहरण के लिए अनुच्छेद 265 में व्यवस्था है कि कोई कर विधि के प्राधिकार से ही अधिरोपित या संगृहीत किया जाएगा। विधायिका के प्राधिकार के बिना कोई व्यय नहीं किया जा सकता (अनुच्छेद 266); तथा राष्ट्रपति प्रत्येक वित्तीय वर्ष के संबंध में वार्षिक वित्तीय विवरण संसद के समक्ष रखेगा (अनुच्छेद 112)। हमारे संविधान के ये उपबंध सरकार को संसद के प्रति जवाबदेह बनाते हैं।

बजट

संसद की दोनों सभाओं के समक्ष रखा जाने वाला “वार्षिक वित्तीय विवरण” केन्द्र सरकार का बजट कहलता है। इस विवरण में एक वित्तीय वर्ष की अवधि शामिल होती है। भारत में वित्तीय वर्ष हर साल एक अप्रैल को आरम्भ होता है। विवरण में वित्तीय वर्ष हेतु भारत सरकार की अनुमानित प्राप्तियों तथा व्यय का ब्यौरा होता है।

अनुदानों की मांगें

बजट में सम्मिलित व्यय के अनुमान को लोक सभा द्वारा अनुदानों की मांगों के रूप में मतदान के जरिए स्वीकृत होना चाहिए। इन मांगों को मंत्रालयवार क्रमबद्ध किया जाता है तथा प्रत्येक प्रमुख सेवा हेतु पृथक मांग प्रस्तुत की जाती है। प्रत्येक मांग में पहले कुछ अनुदान का विवरण होता है और तत्पश्चात् विस्तृत अनुमान को मदों में विभाजित करने संबंधी विवरण होता है।

रेल बजट

भारतीय रेल का बजट संसद में पृथक रूप से प्रस्तुत किया जाता है तथा इस पर अलग से कार्यवाही चलती है, यद्यपि रेलवे की प्राप्तियां तथा व्यय भारत की संचित निधि का भाग होते हैं तथा उनसे संबंधित आंकड़े वार्षिक वित्तीय विवरण में सम्मिलित किए जाते हैं।

प्रस्तुत करना

भारत में राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित तिथि पर संसद में बजट प्रस्तुत किया जाता है। वित्त मंत्री का बजट भाषण सामान्यतः दो भागों में होता है। भाग “क” देश के सामान्य आर्थिक सर्वेक्षण के बारे में है जबकि भाग “ख” कराधान प्रस्तावों से संबंधित है। पूर्व में सामान्य बजट फरवरी के अंतिम कार्य दिवस को अपराह्न 5 बजे प्रस्तुत किया जाता था किंतु 1999 से सामान्य बजट फरवरी के अंतिम कार्य दिवस को पूर्वाह्न 11 बजे प्रस्तुत किया जा रहा है अर्थात्, उस वर्ष जिसमें लोक सभा के आम चुनाव होते हैं, को छोड़कर, वित्तीय वर्ष के आरंभ होने से लगभग एक माह पूर्व। चुनाव वाले वर्ष में बजट दो बार, पहले तो कुछ महीनों के लिए लेखानुदान प्राप्त करने के लिए और बाद में पूर्ण बजट के रूप में प्रस्तुत किया जाता है।

लोक सभा में सामान्य बजट वित्त मंत्री द्वारा प्रस्तुत किया जाता है। वह बजट को प्रस्तुत करते हुए भाषण देता है और अपने भाषण के अंतिम भाग में ही उनके द्वारा नए कराधान के प्रस्तावों या मौजूदा करों में परिवर्तनों के बारे में बताया जाता है। लोक सभा में वित्त मंत्री के भाषण की समाप्ति पर वार्षिक वित्तीय विवरण राज्य सभा के पटल पर रखा जाता है।

बजट दस्तावेज

वार्षिक वित्तीय विवरण के साथ-साथ सरकार निम्नलिखित दस्तावेज प्रस्तुत करती है चालू वर्ष और अगले वर्ष के दौरान प्राप्तियों और व्यय की प्रकृति स्पष्ट करने वाला और दो वर्षों के अनुमानों में भिन्नता के कारणों को दर्शाने वाला एक संक्षिप्त व्याख्यात्मक ज्ञापन मंत्रालयवार प्रावधानों को दर्शाने वाली मांगों की सूची और मंत्रालय के प्रत्येक विभाग तथा सेवा के लिए एक पृथक मांग। वित्त विधेयक, जो कि सरकार द्वारा प्रस्तावित कराधान उपायों से संबंधित है, को बजट पेश किए जाने के तुरन्त बाद पुरःस्थापित किया जाता है। इसके साथ एक ज्ञापन प्रस्तुत किया जाता है, जिसमें विधेयक के उपबंधों और देश के वित्त पर इनके प्रभावों को स्पष्ट किया जाता है।

लेखानुदान

बजट पर चर्चा इसे प्रस्तुत किए जाने के कुछ दिनों बाद आरंभ होती है। एक लोकतांत्रिक ढांचे में, सरकार संसद को बजटीय प्रावधानों और कराधान के लिए विभिन्न प्रस्तावों पर चर्चा करने का पूर्ण अवसर देने के लिए उत्सुक रहती है। चूंकि संसद नए वित्तीय वर्ष के आरंभ होने से पहले संपूर्ण बजट पर मतदान नहीं करा पाती, अतः देश के प्रशासन को चलाने के लिए सरकार के पास पर्याप्त वित्त उपलब्ध रहने की आवश्यकता बनी रहती है। इसलिए, लेखानुदान के लिए एक विशेष उपबंध किया गया है, जिसके अंतर्गत सरकार उतनी धनराशि के लिए संसद की स्वीकृति प्राप्त करती है, जितनी वर्ष के एक भाग के लिए विभिन्न मदों पर व्यय हेतु पर्याप्त हो।

सामान्यतः लेखानुदान की स्वीकृति दो माह के लिए ली जाती है। किंतु यदि किसी निर्वाचन वर्ष में, या जब यह पूर्वानुमान हो कि मुख्य अनुदानों और विनियोग विधेयक को पारित करने में दो महीने से अधिक समय लगेगा, तो लेखानुदान की स्वीकृति दो महीने से अधिक अवधि के लिए ली जा सकती है।

चर्चा

लोक सभा में बजट पर चर्चा दो चरणों में की जाती है। सर्वप्रथम, पूर्ण बजट पर सामान्य चर्चा होती है। यह चर्चा 4 से 5 दिनों तक चलती है। इस चरण में बजट की व्यापक रूपरेखा और इसमें निहित सिद्धांतों और नीतियों पर ही चर्चा की जाती है।

संसद की स्थायी समितियों द्वारा मांगों पर विचार

रेल और सामान्य बजट दोनों पर सामान्य चर्चा के पहले चरण के समाप्त होने के पश्चात्, सभा एक निश्चित अवधि के लिए स्थगित कर दी जाती है। इस अवधि के दौरान, रेलवे सहित विभिन्न मंत्रालयों/विभागों की अनुदानों की मांगों पर संबंधित स्थायी समितियों द्वारा विचार किया जाता है (नियम 331 छ)। इन समितियों को एक निश्चित अवधि के भीतर, और अधिक समय की मांग किए बिना, सभा को अपने प्रतिवेदन देने होते हैं। स्थायी समितियों द्वारा अनुदानों की मांगों पर विचार किए जाने की प्रणाली वर्ष 1993-94 के बजट से प्रारंभ की गई थी। स्थायी समिति में 45 सदस्य होते हैं, जिनमें लोक सभा के 30 सदस्य और राज्य सभा के 15 सदस्य होते हैं। स्थायी समितियों के प्रतिवेदन सलाहकारी प्रकृति के होते हैं (नियम 331ढ़)। प्रतिवेदन में कटौती प्रस्तावों की प्रकृति का कोई सुझाव नहीं होता है।

स्थायी समितियों के प्रतिवेदन सभा में प्रस्तुत किए जाने के पश्चात् सभा चर्चा करती है और मंत्रालयवार अनुदानों की मांगों पर मतदान करती है। अध्यक्ष द्वारा सभा के नेता के परामर्श से अनुदानों की मांगों पर चर्चा और मतदान हेतु समय आबंटित किया जाता है। आबंटित दिवसों के अंतिम दिन, अध्यक्ष सभी बकाया मांगों को सभा में मतदान के लिए प्रस्तुत करता है। यह प्रक्रिया आम तौर पर “गिलोटिन ” के नाम से जानी जाती है। लोक सभा के पास किसी भी मांग को स्वीकृति देने अथवा स्वीकृति देने से मना करने या सरकार द्वारा मांगी गई अनुदान की धनराशि में कटौती करने की भी शक्ति है। राज्य सभा में बजट पर केवल सामान्य चर्चा होती है। यह अनुदानों की मांगों पर मतदान नहीं करती। केवल उतनी ही धनराशि के संबंध में लोक सभा में मतदान होता है, जो कि भारत की समेकित निधि पर व्यय के रूप में “प्रभारित ” नहीं होती। प्रभारित व्यय के अन्तर्गत राष्ट्रपति की परिलब्धियां, राज्य सभा के सभापति और उप-सभापति तथा लोक सभा के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष, उच्चतम न्यायालय के न्यायधीशों, भारत के नियंत्रक और महापरीक्षक के वेतन और भत्ते तथा भारत के संविधान में विनिर्दिष्ट कतिपय अन्य मदें शामिल हैं। “प्रभारित ” व्यय पर लोक सभा में चर्चा की अनुमति है किंतु ऐसे व्यय पर सभा में मतदान नहीं किया जाता। चर्चा के दौरान सदस्यों के पास बजटीय प्रावधानों की आलोचना करने और साथ ही देश की वित्तीय स्थिति सुधारने के लिए सुझाव देने का भी पूरा अवसर होता है।

कटौती प्रस्ताव

विभिन्न अनुदानों की मांगों में कटौती के लिए कटौती प्रस्तावों के रूप में प्रस्ताव किए जाते हैं जिनके अन्तर्गत मित्तव्ययिता या नीति के मामलों पर मत की विभिन्नता के आधार पर या कोई शिकायत व्यक्त करने के उद्देश्य से सरकार द्वारा मांगी गई धनराशि में कटौती की मांग की जाती है।

विनियोग विधेयक

बजट प्रस्तावों पर सामान्य चर्चा और अनुदानों की मांगों पर मतदान हो जाने के पश्चात्, सरकार विनियोग विधेयक पुरःस्थापित करती है। विनियोग विधेयक का आशय सरकार को भारत की संचित निधि में से व्यय करने का प्राधिकार देना है। इस विधेयक को पारित करने की वही प्रक्रिया है, जो अन्य धन विधेयकों के मामले में है।

वित्त विधेयक

सरकार के कराधान प्रस्तावों को मूर्त रूप देने की व्यवस्था करने वाले वित्त विधेयक, जिसे सामान्य बजट प्रस्तुत किए जाने के तुरन्त बाद लोक सभा में पुरःस्थापित किया जाता है, को विनियोग विधेयक पारित किए जाने के पश्चात् विचार करने और पारित किए जाने के लिए लिया जाता है। तथापि नए शुल्क लगाने और संग्रहीत करने या मौजूदा शुल्कों में परिवर्तन से संबंधित विधेयक के कतिपय उपबंध अनन्तिम कर संग्रहण अधिनियम के अन्तर्गत एक घोषणा द्वारा उस दिन के समाप्त होने के पश्चात् तत्काल प्रभाव से लागू हो जाते हैं; जिस दिन विधेयक को पुरःस्थापित किया गया है। संसद को वित्त विधेयक पुरःस्थापित किए जाने के 75 दिनों के भीतर इसे पारित करना होता है।

अनुपूरक/अतिरिक्त अनुदान

संसद द्वारा प्राधिकृत धनराशि की सीमा से अधिक कोई व्यय संसद की स्वीकृति के बिना नहीं किया जा सकता। जब भी अतिरिक्त व्यय करने की आवश्यकता होती है, संसद के पटल पर एक अनुपूरक अनुमान रखा जाता है। यदि एक वित्तीय वर्ष के दौरान किसी सेवा पर उस सेवा के लिए और उस वर्ष हेतु स्वीकृत धनराशि से अधिक धनराशि खर्च की गई है, तो वित्त/रेल मंत्री अतिरिक्त अनुदानों की मांगें प्रस्तुत करते हैं। अनुपूरक/अतिरिक्त अनुदानों के संबंध में संसद में अपनाई जाने वाली प्रक्रिया लगभग वही है, जो सामान्य बजट में शामिल किए गए अनुमानों के मामले में अपनाई जाती है।

राष्ट्रपति के शासनाधीन राज्य और संघ राज्य क्षेत्र का बजट

राष्ट्रपति के शासनाधीन राज्य का बजट लोक सभा में प्रस्तुत किया जाता है। केन्द्र सरकार के बजट के संबंध में अपनाई गई प्रक्रिया ही राज्य के बजट के मामले में, अध्यक्ष द्वारा किए गए आवश्यक परिवर्तनों और हल्के परिवर्तनों के साथ अपनाई जाती है।

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