• HOME
  • DAILY CA
  • UPSC4U NOTES
    • HISTORY
    • POLITY
    • ECONOMICS
    • GEOGRAPHY
    • ESSAY
  • EXAM TIPS
  • PDF4U
    • UPSC BOOKS
    • UPSC MAGAZINE
    • UPSC NCERT
      • NCERT HISTORY
      • NCERT GEOGRAPHY
      • NCERT ECONOMICS
      • NCERT POLITY
      • NCERT SCIENCE
  • OPTIONAL
    • HINDI OPTIONAL
      • HINDI BOOKS
      • HINDI NOTES
    • HISTORY OPTIONAL
    • SOCIOLOGY OPTIONAL
  • QUIZ4U
    • HISTORY QUIZ
    • GEOGRAPHY QUIZ
    • POLITY QUIZ
  • MOTIVATION
  • ABOUT US
    • PRIVACY POLICY & TERMS OF SERVICE
  • CONTACT
  • Advertise with Us
UPSC4U
  • HOME
  • DAILY CA
  • UPSC4U NOTES
    • HISTORY
    • POLITY
    • ECONOMICS
    • GEOGRAPHY
    • ESSAY
  • EXAM TIPS
  • PDF4U
    • UPSC BOOKS
    • UPSC MAGAZINE
    • UPSC NCERT
      • NCERT HISTORY
      • NCERT GEOGRAPHY
      • NCERT ECONOMICS
      • NCERT POLITY
      • NCERT SCIENCE
  • OPTIONAL
    • HINDI OPTIONAL
      • HINDI BOOKS
      • HINDI NOTES
    • HISTORY OPTIONAL
    • SOCIOLOGY OPTIONAL
  • QUIZ4U
    • HISTORY QUIZ
    • GEOGRAPHY QUIZ
    • POLITY QUIZ
  • MOTIVATION
  • ABOUT US
    • PRIVACY POLICY & TERMS OF SERVICE
  • CONTACT
  • Advertise with Us

GEOGRAPHY

Home » स्वातंत्र्योत्तर काल की औद्योगिक उपलब्धि FOR UPSC IN HINDI

स्वातंत्र्योत्तर काल की औद्योगिक उपलब्धि FOR UPSC IN HINDI

  • Posted by teamupsc4u
  • Categories GEOGRAPHY
  • Comments 0 comment

औद्योगिक नीति की मुख्य विशेषताएं, जैसाकि समय-समय पर उन्नत किया गया है, निम्न प्रकार हैं।

प्राथमिक चरण

औद्योगिक नीति प्रस्ताव, 1948:

  1. सार्वजनिक एवं निजी क्षेत्र के मध्य एक स्पष्ट विभाजन किया गया।
  2. एक मिश्रित आर्थिक ढांचे के ऊपर बल दिया गया।
  3. उद्योग को चार श्रेणियों में बांटा गया-
  • पूर्ण राज्य एकाधिकार युक्त, जिनमें सुरक्षा व अन्य सामरिक मामलों से जुड़े उद्योग
  • ऐसे उद्योग क्षेत्र, जिनमें मौजूदा निजी क्षेत्र की क्षमता को बरकरार रखा जाना था किंतु नयी पहल सरकार को करनी थी
  • वे उद्योग, जो निजी क्षेत्र द्वारा स्थापित किये जाने थे किंतु उनका नियंत्रण व विनियमन सरकार के अधीन होना था
  • सामान्य नियंत्रण के अधीन निजी क्षेत्र द्वारा स्थापित उद्योग।

राष्ट्रीयकरण के प्रश्न का निर्णय 10 वर्ष बाद किया जाना था, किंतु जब यह प्रावधान उद्यमियों को आधुनिकीकरण तथा विस्तार का कार्य हाथ में लेने से निवारित करने लगा, तब सरकार द्वारा एक स्पष्टीकरण जारी किया गया कि-10 वर्ष बाद भी सभी निजी इकाइयों (द्वितीय श्रेणी के अंतर्गत) का राष्ट्रीयकरण संभव नहीं हो सकेगा।

औद्योगिक नीति प्रस्ताव, 1956

  1. औद्योगिक नीति में त्वरित औद्योगीकरण तथा समाज के समाजवादी प्रतिरूप के एक नवीन विकास संदर्श को प्रतिबिंबित किया गया।
  2. सार्वजनिक क्षेत्र के विस्तार तथा सहकारी क्षेत्र के निर्माण पर जोर दिया गया।
  3. उद्योग को तीन श्रेणियों में बांटा गया-
  • अनुसूची- ‘ए’– इस श्रेणी के उद्योगों का भविष्यगामी विकास राज्य एकाधिकार के अंतर्गत होना था। इस श्रेणी में 17 उद्योग समूह शामिल थे।
  • अनुसूची-‘बी’– इस श्रेणी में शामिल 12 उद्योग समूह राज्य स्वामित्व के अधीन थे।
  • अनुसूची ‘सी‘– इसमें शेष बचे उद्योग शामिल थे, जो निजी क्षेत्र के अंतर्गत थे।

औद्योगिक नीति, 1970

  1. इसमें सर्वाधिक जोर लघु एवं कुटीर उद्योग के प्रभावी संवर्धन पर दिया गया।
  2. बड़े औद्योगिक घरानों की एकाधिकारी प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाने के प्रयास किये गये।

औद्योगिक नीति, 1980

  1. आधार संरचनात्मक आगतों की कमी को समाप्त करने का सुझाव दिया गया।
  2. वास्तविक स्थापित क्षमता के नियमितीकरण को नियोजित किया गया।
  3. एक अधिक उदारीकृत लाइसेंसिंग प्रणाली स्थापित की जानी थी।
  4. कृषि-आधारित उद्योगों को प्राथमिकता प्रदान की गयी।
  5. ग्रामीण व पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों का विस्तार किया गया।
  6. वृहत, मध्यम एवं लघु उद्योगों का समन्वित विकास किया गया।
  7. उपभोक्ता संरक्षण की अवधारणा को महत्व दिया गया।

निम्नलिखित तीन उद्देश्यों पर जोर दिया गया-

  • स्थापित क्षमता के अनुकूलतम उपयोग द्वारा उत्पादकता में वृद्धि लाना;
  • अनिवार्य आपूर्ति, रोजगार एवं आय के माध्यम से आर्थिक लाभों को सामान्य जन तक पहुंचाना, तथा;
  • निर्यात संवर्धन

औद्योगिक नीति, 1985

  1. आधुनिकीकरण हेतु क्षमता में 49 प्रतिशत की वृद्धि को अनुमोदित किया गया।
  2. केंद्र द्वारा घोषित पिछड़े क्षेत्रों में स्थित 23 उद्योगों को एमआरटीपी एवं फेरा के अधिकार क्षेत्र से बाहर कर दिया गया।
  3. एमआरटीपी कंपनियों की परिसम्पत्ति सीमा बढ़ा दी गयी।
  4. ब्रॉडबैंडिंग का सूत्रपात किया गया।
  5. लघु क्षेत्र की आरक्षित सूची से 200 वस्तुओं को हटा दिया गया।

नवीन औद्योगिक नीति, 1991

24 जुलाई, 1991 को सरकार ने नवीन औद्योगिक नीति की उद्घोषणा अस्सी के दशक के दौरान उठाए गए उदारीकरण उपायों या कदमों के संदर्भ में की। इसमें पूर्व के नीतिगत पहलों में व्यापक फेरबदल किया गया एवं व्यावहारिक रूप से इतिहास से अंतरित किया गया।

नयी नीति में औद्योगिक अर्थव्यवस्था को नियंत्रण मुक्त करने पर जोर दिया गया। नयी नीति के प्रमुख उद्देश्य थे-पूर्ववर्ती लाभों को बनाये रखना, ऐसी विकृतियों में सुधार करना जो व्यापक रूप धारण कर सकती हैं, रोजगार व उत्पादकता में एक संवहनीय वृद्धि कायम रखना तथा भूमंडलीय प्रतिस्पद्ध में निरंतर टिके रहने की क्षमता प्राप्त करना। इन उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए सरकार द्वारा अनेक पहलकदम उठाये गये, जिनकी घोषणा नवीन औद्योगिक नीति में की गयी।

औद्योगिक लाइसेंसिंग: नयी नीति के अंतर्गत सभी प्रकार की औद्योगिक लाइसेंसिंग प्रणाली को समाप्त कर दिया गया। सुरक्षा, सामाजिक हित व पर्यावरण संरक्षण तथा घातक उत्पादों से जुड़े कुछ उद्योग इसका अपवाद थे।

सार्वजनिक क्षेत्र की भूमिका में कटौती: 1956 से ही सार्वजनिक क्षेत्र के लिए आरक्षित उद्योगों की संख्या 17 थी, जी 1991 में घटाकर 8 कर दी गयी। 1993 में ये संख्या 6 तथा 1999-2000 में मात्र 4 रह गयी, ये चार उद्योग क्षेत्र हैं-

  1. अस्त्र-शस्त्र तथा सुरक्षा उपकरणों से जुड़े साज-सामान, रक्षा विमान एवं युद्धपोत का निर्माण
  2. नाभिकीय ऊर्जा
  3. 15 मार्च, 1995 को भारत सरकार के परमाणु ऊर्जा विभाग द्वारा जारी अधिसूचना में निर्दिष्ट पदार्थों का उत्पादन।
  4. रेल परिवहन

मई 2001 तक, लाइसेंस और विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की 26 प्रतिशत सीमा के अधीन रक्षा उत्पादन की निजी क्षेत्र के लिए खोल दिया गया। इस प्रकार, अब मात्र तीन क्षेत्र ही, विशेष रूप से, सार्वजनिक क्षेत्र में शेष हैं। यहां तक कि इन क्षेत्रों में भी, विवेकपूर्ण आधार पर निजी क्षेत्र की सहभागिता संभव है।

नीति के अनुसार, सार्वजानिक क्षेत्र की रुग्न इकाइयों को इनके पुनर्निर्माण और पुनर्स्थापना पर परामर्श के लिए औद्योगिक एवं वित्तीय पुनर्निर्माण बोर्ड को संदर्भित किया जाएगा।

सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों में सरकारी शेयरधारिता के एक हिस्से को म्यूच्अल फंड, वित्तीय के इरादों को जाहिर किया। वर्ष 1991-92 में इस कदम को उठाया गया जब 30 चयनित सार्वजनिक क्षेत्र उपक्रमों की इक्विटी के एक हिस्से का विनिवेश किया गया और इससे 3,000 करोड़ रुपए जुटाए गए। नई औद्योगिक नीति ने, अर्थव्यवस्था के मुख्य क्षेत्रों में, सरकार द्वारा बड़ी मात्रा में निजी क्षेत्र की सहभागिता को आमंत्रित करने की इच्छा को सामने रखा।

एमआरटीपी सीमा में कटौती

1985 में 100 करोड़ से अधिक परिसम्पत्ति वाली कंपनियों को एमआरटीपी फर्मों के रूप में वर्गीकृत किया गया। इन्हें कुछ चयनित उद्योगों में परिस्थिति मूलक अनुमोदन के आधार पर प्रवेश करने दिया जाता था। इस कारण कई बड़ी कंपनियों की विकास व विविधीकरण सम्बंधी योजनाओं पर नकारात्मक प्रभाव पड़ा। नवीन औद्योगिक नीति में परिसंपत्ति की प्रभावी सीमाओं को घटा दिया गया। एमआरटीपी अधिनियम में संशोधन कर दिया गया, ताकि इन कंपनियों को लाइसेंस मुक्त उद्योगों में निवेश करने के लिए सरकारी पूर्व-अनुमोदन की जरूरत न पड़े।

विदेश निवेश व तकनीक के मुक्त प्रवाह की अनुमति: नयी नीति के अस्तित्व में आने से पूर्व विदेशी निवेश व तकनीक प्राप्त करने के लिए सरकारी पूर्वानुमति आवश्यक होती थी, जिससे अनावश्यक विलंब, सरकारी हस्तक्षेप तथा व्यापारिक निर्णयकरण में गतिरोध जैसी समस्याएं उत्पन्न होती थीं।

आर्थिक विकास में विदेशी प्रत्यक्ष निवेश की भूमिका को स्वीकार करते हुए नयी नीति के तहत विशेषतः कोर एवं आधारसंरचनात्मक क्षेत्रों में विदेशी निवेश को प्रोत्साहन दिया गया। साथ ही इससे घरेलू उद्योग को क्षति न पहुंचे, यह सुनिश्चित करने के उपाय भी किये गये। इन उपायों में विदेशी विनिमय तटस्थता, निर्यात बाध्यता एवं विदेशी अंशधारिता का सीमांकन इत्यादि प्रमुख थे।

औद्योगिक अवस्थिति से जुड़ी नीति का उदारीकरण: नयी नीति के अंतर्गत 10 लाख की जनसंख्या वाले शहरों से दूर स्थापित किये जाने वाले उद्योगों को केंद्र की पूर्व मंजूरी की आवश्यकता नहीं होगी (अनिवार्य लाइसेंसिंग वालों को छोड़कर)। प्रदूषणजनित प्रकृति के उद्योगों को भी इन शहरों की 25 किमी. की परिधि से बाहर स्थापित किया जायेगा।

इसके चरणबद्ध निर्माण कार्यक्रमों तथा अधिदेशात्मक परिवर्तनीयता को भी समाप्त कर दिया गया है।

नई परियोजनाओं के अंतर्गत चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम की समाप्ति: विनिर्माण क्षेत्र की गति प्रदान करने के उद्देश्य से अनेक अभियांत्रिकी तथा इलेक्ट्रॉनिक उद्योगों में चरणबद्ध विनिर्माण कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं। लेकिन व्यापार नीति में महत्वपूर्ण सुधारों और रुपये के अवमूल्यन के बाद अब सरकार को यह अनुभव होने लगा है कि प्रशासनिक आधार पर मामलों के संदर्भ में स्थानीय योगदान लेने की आवश्यकता नहीं रह गई है। अतः ये चरणबद्ध कार्यक्रम समाप्त कर दिए गए हैं। लेकिन, इस योजना के अंतर्गत जो प्रोत्साहन और सुविधाएं मिल रहे थे, वह जारी रहेंगे।

अनिवार्य विनिमेयता धारा की समाप्ति: भारत में औद्योगिक निवेश को बैंकों तथा अन्य वित्तीय संस्थाओं से ऋण के रूप में आर्थिक सहायता प्राप्त होती है। ये संस्थाएं किसी भी नई परियोजना के लिए अपने ऋण-कार्यक्रम में अनिवार्य रूप से विनिमेयता धारा अथवा शर्त को शामिल करती रही हैं। इससे इनके प्रबंधन की आवश्यकतानुसार अपने दिए गए ऋण के कुछ अथवा निश्चित हिस्से को अंश-पत्र (इक्विटी) में परिवर्तित करने के अवसर मिल जाते थे। वित्तीय संस्थाओं की ऐसी कार्यवाहियों को निजी कंपनियों द्वारा अक्सर उन पर कब्जा करने की धमकी के रूप में देखा जाता रहा था। लेकिन अब नई औद्योगिक नीति में वित्तीय संस्थाओं द्वारा प्रचलित इस अनिवार्य विनिमेयता की धारा या शर्त को हटा दिया गया है।

अवस्थिति को कारक

एक उद्योग विशेष हेतु उपयुक्त अवस्थिति या स्थल के चयन में कई कारकों का योगदान होता है, जो भौगोलिक, सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक प्रकार के हो सकते हैं। भारतीय परिस्थितियों में प्रभावी सिद्ध होने वाले कारकों का विवेचन निम्न प्रकार से है-

कच्चा माल

भारत की पुर्ब्तम औद्योगिक इकाइयां कच्चे माल के निकटतम स्रोतों के निकट स्थापित की गयीं। उदाहरण के लिए, मुम्बई की कपड़ा मिलों को कपास गुजरात एवं विदर्भ से तथा हुगली क्षेत्र की जूट मिलों को कच्चा माल गंगा के डेल्टाई प्रदेश से प्राप्त होता था। कच्चे माल की प्रकृति भी अवस्थिति हेतु जिम्मेदार होती है, उदाहरण स्वरूप उत्पादन या निर्माण के दौरान घटने वाला कच्चा माल सम्बंधित उद्योग को कच्चे माल के स्रोत के निकट स्थापित होने के लिए प्रिरित करता है। महाराष्ट्र एवं पश्चिमी उत्तर प्रदेश की चीनी मिलें तथा बिहार-प.बंगाल-उड़ीसा पेटी में स्थित लोह व इस्पात उद्योग उक्त तथ्य की पुष्टि करते हैं।

ऊर्जा

लौह व इस्पात उद्योग परम्परागत रूप से कोयला संसाधनों के साथ जुड़ा हुआ है क्योंकि इसमें ईंधन के रूप में कोकिंग कोयला का प्रयोग किया जाता है। इसी प्रकार विद्युत-धात्विक तथा विद्युत रासायनिक उद्योग शक्ति केन्द्रित होने के कारण ऐसे स्थानों पर स्थापित किये जाते हैं, जहां बिजली आसानी से उपलब्ध हो। रेनुकूट व कोरबा (मध्य प्रदेश) की एल्युमिनियम उत्पादक इकाइयां तथा नांगल (पंजाब) का उर्वरक संयंत्र इसी कारक के आधार पर स्थापित किये गये हैं। फिर भी क्योंकि बिजली को आसानी से संप्रेषित तथा पेट्रोलियम को परिवहित किया जा सकता है, अतः इन पर आधारित उद्योग बिखरे हुए भी हो सकते हैं। विद्युत की संप्रेषणीयता के कारण कोयले की कमी वाले प्रायद्वीपीय क्षेत्र में जल-विद्युत के माध्यम से औद्योगिक विकास को संभव बनाया गया है।

परिवहन

परिवहन अथवा यातायात की सुविधाओं द्वारा कच्चे माल को निर्माण इकाइयों तक तथा तैयार माल को बंदरगाहों तक पहुँचाया जाता है। आरंभिक उद्योगों की स्थापना मुंबई, कोलकाता चेन्नई के बंदरगाह नगरों के आस-पास की गयी, क्योंकि ये बंदरगाह सड़क व रेलमार्ग द्वारा आंतरिक भागों से जुड़े हुए थे। स्वतंत्रता के बाद परिवहन आधार संरचना का व्यापक विकास किया गया।

श्रम

उद्योगों की अवस्थिति में कुशल एवं अकुशल मानव श्रम की उपलब्धता एक महत्वपूर्ण कारक है। शहरी स्थलों पर अकुशल श्रमिक बहुतायत में मिल जाते हैं क्योंकि इनका गांवों से शहरों की ओर बड़ी संख्या में प्रवासन होता है। श्रम कारक की मुख्य विशेषता इसकी सचलता है। मुंबई के चारों ओर विस्तृत औद्योगिक पेटी देश के सभी भागों से श्रमिकों को आकर्षित करती है। परंपरागत रूप से श्रम से जुड़े कुछ लघु उद्योगों में कांच निर्माण (फिरोजाबाद), पीतल कार्य (मुरादाबाद), बर्तन निर्माण (यमुना नगर), रेशमी साड़ी (बनारस) तथा कालीन निर्माण (मिर्जापुर) शामिल हैं।

जल

जल-विद्युत उत्पादन तथा धुलाई, सफाई व शीतलन हेतु निर्माण प्रक्रिया में जल की जरूरत होती है। एक या अधिक उद्देश्यों से जल पर निर्भर रहने वाले उद्योगों में लौह व इस्पात (शीतलन हेतु), कपड़ा (विरंजन एवं धुलाई हेतु), कागज, रसायन, जूट, खाद्य प्रसंस्करण, चमड़ा तथा परमाणु उर्जा शामिल हैं। ये सभी उयोग जल को सुगम उपतञ्चता वाते स्थान पर स्थापित किये जाते हैं।

बाजार

उच्च मांग तथा संतोषजनक क्रय शक्ति औद्योगिक विकास की गति प्रदान करती है। सरकारी नीतियां बाजार के विस्तार द्वारा उद्योगों को प्रोत्साहित करती हैं। बाजार स्थानीय, राष्ट्रीय अथवा अंतरराष्ट्रीय प्रकृति के हो सकते हैं।

बदलती परिस्थितियों में कुछ नये कारक

वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास के द्वारा भौगोलिक कारकों के महत्व को कम कर दिया गया है। श्रम की सचलता में और अधिक वृद्धि हुई है तथा ऊर्जा का सुदूर संप्रेषण भी अब संभव हो गया है। कच्चे माल के अनेक विकल्प भी आज उपलब्ध हैं। इसलिए कुछ नये कारकों का जन्म हुआ है, जिनमें कुशल प्रबंधकीय सेवाएँ, पूंजी एवं वित्तीय संसाधनों की उप्लाब्श्ता तथा उत्पादों की निर्यात क्षमता शामिल हैं। सरकारी नीतियों के माध्यम से पिछड़े क्षेत्रों में उद्योगों की स्थापना की जा रही है, ताकि क्षेत्रीय असंतुलन को कम किया जा सके। इन्हीं उद्देश्यों से प्रेरित होकर मथुरा में एक तेल शोधक कारखाने, कपूरथला में रेल डिब्बा निर्माण कारखाने तथा जगदीशपुर में उर्वरक संयंत्र की स्थापना की गयी है। सरकारी नीतियों में पर्यावरण निम्नीकरण की रोकथाम तथा अति संकेन्द्रण में कमी लाने पर भी जोर दिया जाता है। लौह व इस्पात की निर्यात क्षमता ने विशाखापट्टनम एवं सलेम में नवीन इस्पात संयंत्रों की स्थापना को प्रोत्साहित किया है। विशाखापट्टनम एक बंदरगाह है, जबकि सलेम रेल एवं सड़क मार्ग द्वारा चेन्नई व कोच्चि बंदरगाहों से जुड़ा हुआ है।

सनराइज उद्योग: उन उद्योगों के लिए प्रयुक्त किया जाता है जो नवोदित क्षेत्र हैं और जिनके शक्तिशाली बनने की संभावनाएं हैं। ये किसी अर्थव्यवस्था में तेजी से वृद्धि करते हैं तथा निकट भविष्य में बाजार में अग्रणी बनने की क्षमता रखते हैं। सटीक एवं सही निवेश सनराइज उद्योगों को सफल बनाता है जससे उन्हें अल्पावधि में पूंजी आपूर्ति प्राप्त हो सकती है तथा दीर्घावधि में निरंतर प्रतिफल प्राप्त होते हैं। सनराइज उद्योगों में बैंकिंग एवं वित्त, रिटेल (फुटकर), स्वास्थ्य और मनोरंजन क्षेत्र शामिल हैं।

भारत में, सनराइज उद्योग उदारीकरण के दौरान विकसित हुए हैं। सुधार प्रक्रिया के एक भाग के तौर पर, निजी क्षेत्र में भारतीय दूरसंचार क्षेत्र खोला गया। दूरसंचार उद्योग, सूचना प्रौद्योगिकी के साथ, बैंकिंग, फुटकर (रिटेल), मनोरंजन, उड्डयन और आतिथ्य भारत में अग्रणी सनराइज उद्योगों के तौर पर उभरे हैं। इन क्षेत्रों ने अद्भुत विकास प्राप्त किया है और सतत् वृद्धि का मार्ग प्रशस्त किया है।

फुटलूज (स्वच्छंद) उद्योग: ऐसे उद्योग जो औद्योगिक कारकों जैसे-संसाधनों या परिवहन से प्रभावित हुए बिना किसी भी जगह स्थापित किए जा सकते हैं। इन उद्योगों की स्थानिक रूप से लागत प्रायः स्थिर या निश्चित होती है। उत्पाद की लागत पर इसका कोई असर नहीं होता कि इन्हें कहां पर संयुग्मित (एसेम्बल) किया जा रहा है। ये सामान्यतः हल्के कच्चे माल पर निर्भर होते हैं और इसलिए आसानी से इन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है। इन उद्योगों में आमतौर पर उपलब्ध कच्चा माल प्रयोग किया जा सकता है, उदाहरणार्थ बेकरी में, या आपूर्तिकर्ताओं द्वारा आपूर्ति किए जाने वाले तत्वों की एक व्यापक श्रृंखला का इस्तेमाल होता है, उदाहरणार्थ इलेक्ट्रॉनिक्स उद्योग। हीरे और कम्प्यूटर चिप फूटलूज उद्योगों के कुछ उदाहरण हैं। ऐसे उद्योगों को कई स्थानों पर लगाया जा सकता है, क्योंकि अक्सर परिवहन लागत महत्व नहीं रखती है।

कम्प्यूटिंग एवं सूचना प्रौद्योगिकी एक बेहद महत्वपूर्ण फूटलूज उद्योग है, क्योंकि यह कच्चे माल प्राप्ति के किसी स्थान या स्रोत से नहीं बंधी है और यह अपनी अवस्थिति का चुनाव कर सकती है। विशिष्ट रूप से, फूटलूज उद्योग स्वयं को सुविधाजनक मुख्य स्थानों के पास स्थापित करेंगे, जहां से ये उत्तम लोगों को काम के लिए आकर्षित भी कर सकते हैं।

फूटलूज उद्योग विदेशियों की नियुक्त करने के लिए पारराष्ट्रीय कंपनियां भी स्थापित करते हैं जिससे उन्हें अपने देश की अपेक्षा सस्ता श्रम मिल जाता है।

भारत में, फूटलूज उद्योग धातु एवं खनिज, कम्प्यूटिंग एवं सुचना एवं प्रौद्योगिकी, इत्यादि क्षेत्रों में उदित हुआ है।

औद्योगिक विकास का स्थानिक प्रतिरूप

भारत में उद्योगों का वितरण अत्यधिक असमान है। इसका कारण अनिवार्य कच्चे मालों व ऊर्जा संसाधनों का असमान वितरण तथा शहरों में उद्यमों, वित्तीय संसाधनों एवं अन्य जरुरी परिस्थितियों का संकेन्द्रण होना है।

झारखंड, बिहार, ओडीशा, छत्तीसगढ़, मध्य प्रदेश, राजस्थान के कुछ भागों, कर्नाटक एवं तमिलनाडु में देश के अधिकांश धात्विक खनिज भंडार पाये जाते हैं। इसीलिए इस क्षेत्र में (विशेषतः प्रायद्वीप के उत्तरी भागों में) भारी धात्विक उद्योगों तथा इस्पात केन्द्रों का उच्च संकेन्द्रण है, जो पर्याप्त मात्रा में कोयले की उपलब्धता तथा दामोदर घाटी व हीराकुंड जैसी कई शक्ति परियोजनाओं से प्राप्त सस्ती बिजली के कारण लाभदायी सिद्ध हुआ है। राजस्थान में तांबा, सीसा व जिंक; कर्नाटक में इस्पात, मैंगनीज व एल्युमिनियम; तथा तमिलनाडु में एल्युमिनियम धातु उद्योग मौजूद हैं।

कृषि आधारित उद्योग (सूती वस्त्र, जूट, चीनी आदि) भी कच्चे माल उत्पादक क्षेत्रों में ही संकेन्द्रित हैं। वन-आधारित उद्योग (माचिस, कागज, रेजिन, लाख आदि) विभिन्न राज्यों के वन क्षेत्रों तथा नमक व मत्स्यन जैसे उद्योग केरल के तटीय क्षेत्रों में फैले हुए हैं।

भारत की पेट्रोलियम मांगों का एक बड़ा भाग आयात के माध्यम से पूरा किया जाता है, इसीलिए देश के कई तेल शोधक कारखाने प्रमुख बंदरगाहों के निकट स्थित हैं।

सीमेंट उद्योग का वितरण भी सीमेंट ग्रेड चूना-पत्थर की उपलब्धता वाले भागों में अधिक सघन है।

गुजरात व तमिलनाडु के नमक उत्पादक तटीय क्षेत्रों में बड़े स्तर पर अकार्बनिक रसायनों का उत्पादन किया जाता है।

इंजीनियरिंग विद्युत् समान, वहां तथा अन्य उपभोक्ता वस्तु उद्योगों, जिनमें कच्चे माल की आवश्यकता नगण्य होती है, का वितरण संपूर्ण देश में, विशेषतः महानगरों के आसपास, हुआ है।

औद्योगिक परिसर एवं औद्योगिक क्षेत्रीकरण

उद्योगों की अवस्थिति को प्रभावित करने वाले कई कारकों की चर्चा पहले ही की जा चुकी है। क्योंकि ये कारक प्रत्येक स्थान पर मौजूद नहीं होते, इसलिए उद्योगों को संगुच्छ (कलस्टर) में विकसित किया जाता है।

भारत में, औद्योगिक गुच्छ (कलस्टर) कुछ खास फायदों के कारण मात्र कुछ खास स्थानों में स्थित हुए हैं। कलस्टर (गुच्छों) को उपक्रमों, संस्थानों, सेवा प्रदाताओं, और सम्बद्ध नियामक या अंतरसम्बद्ध उत्पादों के उत्पादन में संलिप्त हैं तथा साझा अवसरों और चुनौतियों का सामना करते हैं।

नीति परिदृश्य से, नीति हस्तक्षेप के लिए गुच्छों को उनके वृहद चुनौतियों द्वारा एक प्रारूप में होना चाहिए। इसके अनुरूप, भारत में गुच्छों (कलस्टर) को तीन बड़ी श्रेणियों में वर्गीकृत किया जा सकता है, नामतः

  • अस्तित्व के लिए नवीकरण का उद्देश्य रखने वाले उच्च प्रौद्योगिक औद्योगिक गुच्छ
  • प्रतिस्पर्द्धात्मकता और अनुगामी रोजगार के उद्देश्य वाले परम्परागत मैन्युफैक्चरिंग गुच्छ, और
  • निम्न प्रविधि सूक्ष्म उपक्रम निर्धनता गहन औद्योगिक समूह जो रोजगार और निर्धनता दोनों ही निहितार्थ रखता है।

बी.एन. सिन्हा के अनुसार भारत में औद्योगिक सगुच्छ के तीन प्रकार हैं, जो समीपता में स्थित निर्माण इकाइयों की संख्या तथा औद्योगिक वातावरण के आधार पर पहचाने जाते हैं, ये तीन प्रकार के हैं-

  1. प्रमुख औद्योगिक संगुच्छ ये प्रतिदिन 15 लाख लोगों को रोजगार प्रदान करते हैं। इस प्रकार के 6 संगुच्छ हैं।
  2. गौण औद्योगिक संगुच्छ ये संगुच्छ प्रतिदिन 250000 श्रमिकों को रोजगार प्रदान करते हैं। इनमें असम घाटी, दार्जिलिंग दुआर, उत्तरी बिहार व पूर्वी उत्तर प्रदेश के मैदान, कानपुर, इंदौर-उज्जैन-नागदा, नागपुर-वर्धा, शोलापुर, कोल्हापुर-सांगली, गोदावरी-कृष्णा डेल्टा, बेलगाम-धारवाड़, मालाबार-त्रिचूर, चेन्नई एवं क्वीलोन शामिल हैं।
  3. औद्योगिक जिले ये प्रतिदिन कम-से-कम 25000 लोगों को रोजगार देते हैं। इनके अंतर्गत जम्मू, अमृतसर, रामपुर, जयपुर, निजामाबाद, तिरुनेवेल्ली, कच्छ, कटक, जबलपुर, भावद्र, ग्वालियर, रायपुर, आदिलाबाद, उत्तरी अर्काट तथा रामनाथपुरम जैसे बिखरे हुए औद्योगिक केंद्र शामिल हैं।

प्रमुख औद्योगिक संगुच्छ

1. हुगली औद्योगिक पेटी: यह पेटी कोलकाता के चारों ओर विकसित हुई है। हुगली नदी का मुहाना बंदरगाह के विकास हेतु आदर्श स्थितियां प्रस्तुत करता है। गंगा एवं ब्रह्मपुत्र नदियां इस पेटी को समृद्ध पश्चभूमि से जोड़ती हैं। यह सम्पर्क रेल व सड़क मार्गों द्वारा और मजबूत हो जाता है। इस पेटी में औद्योगीकरण को निम्नलिखित कारकों द्वारा सहायता दी गयी-

  • कोलकाता 1778 से 1912 तक ब्रिटिश भारतीय साम्राज्य की राजधानी रहा, अतः यहां निरंतर ब्रिटिश पूंजी का निवेश होता रहा।
  • असम एवं उत्तरी बंगाल में चाय के बागानों की स्थापना, नील एवं जूट प्रसंस्करण के साथ ही छोटानागपुर पठार क्षेत्र में कोयला तथा लौह-अयस्क की खोज ने हुगली औद्योगिक क्षेत्र के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया।
  • सघन जनसंख्या वाले क्षेत्रों तथा बिहार, उड़ीसा एवं पूर्वी उत्तर प्रदेश के बहिप्रवासन वाले विस्तृत भागों से सस्ता श्रम आसानी से उपलब्ध था।

वर्तमान में, हुगली क्षेत्र द्वारा लौह एवं इस्पात, भारी अभियांत्रिकी, रेल उपकरण, परिवहन उपकरण, रसायन, तेलशोधन कृषि प्रसंस्करण, कपड़ा, कागज, उर्वरक आदि विविध उपभोक्ता उत्पाद जैसे अनेक उदोगों को समर्थन दिया जाता है।

स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद इस क्षेत्र को निम्न समस्याओं का सामना करना पड़ा-

  • अस्सी प्रतिशत जूट उत्पादक क्षेत्र बांग्लादेश में चला गया, जबकि अधिकांश जूट फैक्टरियां हुगली के किनारों पर स्थित थीं।
  • असम के साथ प्रत्यक्ष अंतःस्थलीय सम्पर्क टूट गया।
  • कोलकाता बंदरगाह में गाद का जमना भी एक प्रमुख समस्या है। फरक्का बांध तथा नये हल्दिया बंदरगाह द्वारा स्थिति में कुछ सुधार लाया जा सकता है।

2. मुंबई-पुणे औद्योगिक क्षेत्र: 1774 में एक बंदरगाह विकसित करने के उद्देश्य से ब्रिटिश शासन द्वारा मुंबई द्वीप का अधिग्रहण किया गया। 1853 में मुंबई-ठाणे (34 किमी) रेलमार्ग की शुरूआत ने औद्योगीकरण को गति प्रदान की। भोरघाट से होकर पुणे तथा थालघाट से होकर नासिक जाने का मार्ग खुलने पर पश्चभूमि से जुड़ना आसान हो गया। 1869 में स्वेज नहर के खुलने से यूरोप के साथ निकट सम्पर्क स्थापित करने में सहायता मिली।

मुंबई प्रदेश सूती कपड़ा उद्योग के लिए निम्न कारणों से अनुकूल जलवायु रखता है-

  • नर्मदा और ताप्ती की काली मिट्टी पेटी से कच्चे कपास की आसान या सुगम उपलब्धता
  • बुनाई और सूत कातने के लिए आदर्श तटीय आर्द्र जलवायु
  • पश्चिमी घाट से पनबिजली की सुगम उपलब्धता
  • पश्चिमी तट पर पत्तन की अवस्थिति जिससे पश्चिमी बाजार तक त्वरित पहुंच सुनिश्चित होती है
  • पत्तन के माध्यम से पूंजीगत सामान का आसान आयात

सबसे पहले यह क्षेत्र सूती कपड़ा उद्योग के केंद्र के रूप में उभरा। साथ ही रसायन उद्योग भी विकसित होता गया। आज इस औद्योगिक पेटी के अंतर्गत कुर्ला, जोगेश्वरी, घाटकोपर, विलेपार्लें, अंधेरी, कल्याण, पिम्परी, पुणे, भांडुप तथा ठाणे शामिल हैं। मुंबई-पुणे पेटी के उद्योगों में कपड़ा, रसायन, विद्युत् उपकरण, अभियांत्रिकी, परिवहन उपकरण, चरम वस्तुएं, पोत निर्माण, प्लास्टिक व सिंथेटिक सामान, दवाइयां इत्यादि शामिल हैं।

स्वतंत्रता पश्चात्इस पेटी द्वारा उठाई जाने वाली मुख्य समस्याएं निम्न हैं-

  • सिंचाईकृत, लंबे रेशे कपास की उपज वाला 80 प्रतिशत क्षेत्र पाकिस्तान में चला गया।
  • भूमि संकुचन एक बड़ी समस्या है तथा समुद्री भूमि को पुनः प्राप्त करना या कृषि योग्य बनाना फायदेमंद नहीं था।

3. अहमदाबाद-वड़ोदरा औद्योगिक क्षेत्र: इस क्षेत्र के औद्योगिकीकरण में निम्न कारकों का योगदान था-

  • उच्च परिवहन लागत के चलते मुंबई सूती कपड़ा उद्योग में गिरावट आना तथा कच्चे माल के क्षेत्रों का नजदीक होना।
  • खंभात की खाड़ी में तेल की खोज के बाद वड़ोदरा एवं अंकलेश्वर में पेट्रोरसायन उद्योग का विकास हुआ।
  • कांडला बंदरगाह की अवस्थिति भी लाभदायक सिद्ध हुई।
  • गहन जनसंख्या वाले उत्तरी भारत के मैदानों की निकटता ने एक आसान बाजार उपलब्ध कराया ।

फिलहाल इस क्षेत्र में डीजल इंजन, कपड़ा मशीनरी, औषधि एवं खाद्य प्रसंस्करण उद्योगों का जमाव है।

4. मदुरई-कोयंबटूर-बंगलौर क्षेत्र: यह प्रमुखतः कपास एवं गन्ना उत्पादक क्षेत्र है तथा यहां रेशमी वस्त्र, चीनी, रसायन, मशीनी उपकरण तथा चर्म वस्तु इत्यादि उद्योगों का विकास हुआ है। इस क्षेत्र में शिवसमुद्रम, मेतूर, शरावती एवं पापनासम परियोजनाओं से जल-विद्युत प्राप्त की जाती है। इस पेटी में सार्वजनिक क्षेत्र के कई प्रमुख उपक्रम (एचएमटी, भेल, भारत इलेक्ट्रॉनिक्स, हिंदुस्तान एरोनॉटिक्स लिमिटेड, विश्वेशरैया आयरन एंड स्टील वर्क्स, इंडियन टेलिफोन इंडस्ट्री इत्यादि) स्थापित किये गये हैं। मदुरई, शिवकाशी, तिरुचिरापल्ली, बंगलौर, मदुकोट्टई, मांड्या, मैसूर, मेतूर तथा कोयंबटूर इस पेटी के प्रमुख औद्योगिक केंद्र हैं।

Industrial Achievement Of the Post-Independence Period

5. छोटानागपुर पठार क्षेत्र: इस क्षेत्र के औद्योगीकरण में निम्न कारकों का योगदान रहा:

  • बिहार-झारखंड-ओडीशा पेटी में लोहे व कोयले की खोज तथा इन संसाधनों के क्षेत्रों की आपस में निकटता, जिससे इनका सुगम उपयोग संभव हुआ।
  • दामोदर घाटी परियोजना से बिजली की सुगम उपलब्धता। कोयला-आधारित ताप शक्ति परियोजनाएं भी औद्योगिकीकरण में सहायक सिद्ध हुई।
  • पूर्वी उत्तर प्रदेश, बिहार एवं ओडीशा से सस्ता श्रम उपलब्ध हुआ।
  • बंदरगाह एवं बड़े बाजारों से समीपता भी लाभकारी सिद्ध हुई।

इस पेटी के प्रमुख औद्योगिक केंद्रों में रांची, चाईबासा, गारवा, सिंदरी, हजारीबाग, जमशेदपुर, जापला, धनबाद इत्यादि शामिल हैं। इस क्षेत्र में लौह व इस्पात, भारी अभियांत्रिकी, मशीनी उपकरण, उर्वरक, सीमेंट, कागज, रेल के इंजन तथा भारी विद्युत् समान जैसे उद्योगों का जमाव है।

5. आगरा-मथुरा-मेरठ-सहारनपुर एवं फरीदाबाद-गुड़गांव-अम्बाला औद्योगिक पेटियां: ये दोनों पेटियां दिल्ली के समीप आपस में समाहित हो जाती है। स्वतंत्रता प्राप्ति के उपरांत भाकड़ा से प्राप्त जल-विद्युत तथा हरदुआगंज एवं फरीदा से प्राप्त तापीय विद्युत शक्ति ने कई औद्योगिक सगुच्छों को विकसित होने में सहायता दी। इस पेटी में कृषि आधारित उद्योगों (चीनी व कपड़ा) की प्रधानता है। कुछ प्रमुख उद्योग केंद्र तथा वहां स्थित उद्योगों का विवरण इस प्रकार है:

आगरा: कांच, चमड़ा एवं आयरन फाउंड्री उद्योग।

मथुरा: तेलशोधन तथा पेट्रोरसायन।

फरीदाबाद: अभियांत्रिकी एवं इलेक्ट्रॉनिक्स।

सहारनपुर, यमुना नगर: कागज मिल।

मेरठ: चीनी उद्योग।

इनके अतिरिक्त मोदीनगर, सोनीपत, रोहतक, पानीपत, नॉएडा, बल्लभगढ़, गाज़ियाबाद में भी अनेक उद्योगों का विकास हुआ है।

लघु औद्योगिक क्षेत्र

कुछ ऐसे प्रदेश हैं जिनका देश में महत्वपूर्ण औद्योगिक क्षेत्रों के रूप में अभ्युद्य हुआ है। इन नवोदित क्षेत्रों एवं औद्योगिक प्रकृति की सूची नीचे दी गयी है।

  • असम घाटी क्षेत्र (बोंगाई गांव, डिगबोई, गुवाहाटी, तिनसुकिया, डिब्रूगढ़, नूनमती) जूट और सिल्क, पेट्रोकेमिल्स, चाय संसाधन, कागज माचिस खाद्य प्रसंस्करण।
  • दार्जिलिंग-सिलीगुड़ी क्षेत्र पर्यटन और चाय प्रसंकरण।
  • उत्तरी बिहार-पूर्वी उत्तर प्रदेश क्षेत्र (डालमियानगर, पटना, इलाहाबाद, गोरखपुर, सुल्तानपुर, वाराणसी) चीनी, कांच, सीमेंट, उर्वरक, कागज, खाद्य प्रसंस्करण तथा जूट)।
  • कानपूर-लखनऊ क्षेत्र चमड़ा उत्पाद, रसायन, ड्रग्स, उर्वरक, उर्वरक, पेट्रोरसायन, विद्युत् उत्पाद, हल्की मशीनें तथा टेक्सटाइल्स।
  • धारवाड़-बेलगांव क्षेत्र सूती वस्त्र, खाद्य प्रसंस्करण, रसायन तथा मसाले-पैंकिंग।
  • गोदावरी-कृष्णा क्षेत्र (गूंटूर, विशाखापट्टनम्, राजमुंद्री, मछलीपट्टनम) लोहा एवं इस्पात, उर्वरक, चावल मिल, चीनी, रसायन, अभियांत्रिकी, खाद्य प्रसंस्करण सूती वस्त्र तथा जलयान बनाना।
  • तटीय केरल (कोच्चि) चावल मिल, नारियल तेल निष्कर्षण, कागज, पेट्रोल तेल शोधन तथा जलयान बनाना।

औद्योगिक समूहों के भीतर सहकारी कार्यवाही के लिए अंतर्राष्ट्रीय अनुभव बताता है कि औद्योगिक गुच्छ (कलस्टर) के भीतर उद्यमों का संगठन होना चाहिए। इन संगठनों के अभाव में, शिल्पीय कलस्टरों की आवश्यकता एवं मांग की गणना संभवतः अपर्याप्त रहती है, और सरकारी कार्यक्रमों या कलस्टर विकास अभिकरणों के प्रयास मांग प्रेरित होने के बजाय पूर्ति प्रेरित हो सकते हैं।

  • Share:
author avatar
teamupsc4u

Previous post

भारत के प्रमुख औद्योगिक घराने FOR UPSC IN HINDI
August 24, 2022

Next post

उद्योग: औद्योगिक विकास का इतिहास FOR UPSC IN HINDI
August 24, 2022

You may also like

GEOGRAPHY
भारत में हिमालय के प्रमुख दर्रे  FOR UPSC IN HINDI
22 September, 2022
GEOGRAPHY
ब्रह्माण्ड और मंदाकिनियाँ FOR UPSC IN HINDI
22 September, 2022
GEOGRAPHY
वारसा जलवायु परिवर्तन सम्मेलन FOR UPSC IN HINDI
22 September, 2022

Leave A Reply Cancel reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Search

Categories

DOWNLOAD MOTOEDU

UPSC BOOKS

  • Advertise with Us

UPSC IN HINDI

  • ECONOMICS
  • GEOGRAPHY
  • HISTORY
  • POLITY

UPSC4U

  • UPSC4U SITE
  • ABOUT US
  • Contact

MADE BY ADITYA KUMAR MISHRA - COPYRIGHT UPSC4U 2022

  • UPSC4U RDM
Back to top