दोहा जलवायु सम्मेलन FOR UPSC IN HINDI

जलवायु परिवर्तन और उत्सर्जन की समस्या को लेकर 26 नवम्बर से 7 दिसम्बर-2012 को कतर की राजधानी दोहा में संयुक्त राष्ट्र का वार्षिक सम्मेलन आयोजित हुआ। उल्लेखनीय है कि इस सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन को रोकने के लिए पूर्ववर्ती क्योटो प्रोटोकॉल के स्थान पर एक नई बाध्यकारी संधि पर समझौता होना था। अपेक्षा की जा रही थी कि नई संधि क्योटो प्रोटोकॉल से मिलती-जुलती हो और इसके बुनियादी सिद्धांतों के आधार पर हो, किंतु दोहा के आलोच्य सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन के लिए जिम्मेदार गैसों की कटौती पर कोई बाध्यकारी समझौता नहीं हो सका और न ही विकसित देशों द्वारा विकासशील देशों को आर्थिक सहायता के लिए 100 अरब डॉलर के ग्रीन फंड के लिए कोई व्यवस्थित फंड बना पाए। सम्मेलन की उपलब्धि यह रही कि क्योटो प्रोटोकॉल को वर्ष 2020 तक के लिए बढ़ा दिया गया।

Doha-Climate-Change-Conference

डरबन सम्मेलन में जलवायु परिवर्तन पर नई संधि का प्रारूप तैयार करने के लिए 2015 की समय सीमा तय की गई है ताकि इस नई संधि को 2020 से लागू किया जा सके।

वस्तुतः दोहा सम्मेलन में क्योटो प्रोटोकॉल को आगे बढ़ाने के निर्णय से कोई विशेष लाभ नहीं मिलने वाला है क्योंकि वर्तमान में इस संधि में जो 36 देश शामिल हैं उनका कुल उत्सर्जन मात्र 15 प्रतिशत है। अमेरिका, जो कि विश्व में कार्बन का दूसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक है, इस संधि से बाहर है। दूसरी तरफ कनाडा स्वयं को दिसम्बर, 2011 में इस संधि से औपचारिक रूप से हटने की घोषणा कर चुका है। उल्लेखनीय है कि विश्व का सबसे बड़ा कार्बन उत्सर्जक देश चीन और विकासशील देश भारत पर यह संधि बाध्यकारी रूप से लागू नहीं होती। अमेरिका का मानना है कि वह देश के विकास से किसी प्रकार का समझौता नहीं करेगा। उधर कनाडा का मानना है कि क्योटो प्रोटोकॉल जलवायु परिवर्तन से प्रभावी ढंग से निपटने में इस कारण विफल रही है, क्योंकि विश्व के दो बड़े कार्बन उत्सर्जक देश अमेरिका और चीन संधि में शामिल नहीं है, जिससे यह संधि वैश्विक स्तर पर कार्बन उत्सर्जन पर रोक लगाने में असफल रही है। भारत और चीन प्रति व्यक्ति कम उत्सर्जन और गरीबी का हवाला देकर किसी बाध्यकारी समझौता का विरोध करते हैं। वैसे गौर करने वाली बात यह भी है कि 1990 से 2012 तक कार्बन उत्सर्जन 1990 को आधार वर्ष मानकर की जाने वाली कटौती आवश्यकता से काफी कम होगी।

इस प्रकार स्पष्ट है कि कार्बन उत्सर्जन तथा इसके कारण होने वाले वैश्विक तापन पर लगाम लगाने के प्रयास तो किए जा रहे हैं, लेकिन कई वार्ताओं और सम्मेलनों के बावजूद कोई ठोस निष्कर्ष नहीं निकल पा रहा है।

अमेरिका जैसे विकसित देश प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन की मात्रा की जगह कुल उत्सर्जित कार्बन की मात्रा को कटौती का आधार बनाना चाहते हैं। इसका कारण यह है कि जनसंख्या अधिक होने के कारण भारत और चीन में प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन 1.7 टन तथा 5.8 टन प्रति वर्ष है, जबकि अमेरिका में प्रति वर्ष प्रति व्यक्ति कार्बन उत्सर्जन लगभग 20 टन, यूरोपीय संघ के देशों में लगभग 10 टन प्रति वर्ष है। संपूर्ण विश्व में प्रति व्यक्ति प्रति वर्ष कार्बन उत्सर्जन लगभग 4 टन है। स्पष्ट है कि 1997 का क्योटो प्रोटोकॉल हो या 2012 का दोहा सम्मेलन, विश्व के सभी राष्ट्र कार्बन उत्सर्जन और जलवायु परिवर्तन का मुद्दा तो जोर-शोर से उठाते हैं, किंतु इस समस्या के समाधान हेतु किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पाते हैं।

Doha-Climate-Change-Conference

वस्तुतः पर्यावरण एवं उत्सर्जन के मसले को देशों की आपसी राजनीति में नहीं उलझाना चाहिए। इस समस्या को मानवता के कल्याण के दृष्टिकोण से देखा जाना चाहिए।

दोहा क्लाइमेट गेटवे

दोहा जलवायु परिवर्तन संधि से संबंधित एक नई संधि सामने आई जिसे दोहा क्लामेट गेटवे नाम दिया गया। इसकी प्रमुख विशेषताएं निम्नलिखित हैं-

  • क्योटो प्रोटोकॉल में संशोधन।
  • क्योटो प्रोटोकॉल, जिसकी अवधि वर्ष 2012 में समाप्त हो रही थी, की अवधि बढ़ाई गई। नया प्रोटोकॉल अगले आठ वर्षों के लिए (वर्ष 2020) तक बाध्यकारी होगा।
  • वर्ष 2015 के लिए नई अंतरराष्ट्रीय संधि।
  • विश्व के सभी देशों को शामिल करने वाले एक सार्वभौमिक जलवायु परिवर्तन समझौते की वर्ष 2015 तक स्वीकार कर लिया जाएगा। इस समझौता का क्रियान्वयन वर्ष 2020 से किया जाएगा।
  • विकसित देशों को जलवायु वित्त की अपनी प्रतिबद्धता पूरी करनी होगी जिसमें वर्ष 2020 तक 100 अरब डॉलर का ग्रीन फंड भी शामिल है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *