उन प्रणालियों पर चर्चा कीजिये जिनके माध्यम से भारतीय संविधान द्वारा कार्यकारी, विधायी एवं न्यायिक शाखाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था की गई है। मूल्यांकन कीजिये कि यह पृथक्करण भारतीय संदर्भ में संसदीय संप्रभुता पर नियंत्रण के रूप में किस प्रकार कार्य करता है।

परिचय

वर्ष 1950 में अपनाया गया भारतीय संविधान कार्यकारी, विधायी और न्यायिक शाखाओं के बीच शक्तियों के पृथक्करण की नींव रखता है। शक्तियों के पृथक्करण का सिद्धांत संसदीय संप्रभुता को संतुलित करने के रूप में कार्य करता है, शक्ति संतुलन सुनिश्चित करता है और किसी एक शाखा को अत्यधिक प्रभावशाली बनने से रोकता है।

शक्तियों का पृथक्करण

शक्तियों का पृथक्करण एक राजनीतिक सिद्धांत है जो सरकार की तीन अलग-अलग शाखाओं के बीच शक्तियों के विभाजन को प्रोत्साहित करता है: कार्यकारी, विधायी, और न्यायिक। प्रत्येक शाखा को अपनी विशिष्ट शक्तियां और जिम्मेदारियां सौंपी जाती हैं, और प्रत्येक शाखा को दूसरे शाखाओं की शक्तियों पर अंकुश लगाने का अधिकार दिया जाता है।

भारतीय संविधान में शक्तियों का पृथक्करण

भारतीय संविधान शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत को लागू करता है। संविधान में, कार्यकारी शाखा को राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, और मंत्रिपरिषद द्वारा निरूपित किया जाता है। विधायी शाखा को संसद द्वारा निरूपित किया जाता है, जिसमें लोकसभा और राज्यसभा शामिल हैं। न्यायिक शाखा को भारत के सर्वोच्च न्यायालय और अन्य निचली अदालतों द्वारा निरूपित किया जाता है।

भारतीय संविधान में शक्तियों के पृथक्करण को लागू करने के लिए निम्नलिखित प्रणालियां प्रदान की गई हैं:

  • कार्यकारी और विधायी शाखाओं के बीच पृथक्करण: संविधान के अनुसार, कार्यकारी शाखा को विधायी शाखा से स्वतंत्र होना चाहिए। राष्ट्रपति, जो कार्यकारी शाखा का प्रमुख है, को संसद द्वारा चुना जाता है, लेकिन वह संसद के प्रति उत्तरदायी नहीं है।
  • कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं के बीच पृथक्करण: संविधान के अनुसार, कार्यकारी शाखा को न्यायिक शाखा से स्वतंत्र होना चाहिए। राष्ट्रपति, जो कार्यकारी शाखा का प्रमुख है, को भारत के मुख्य न्यायाधीश द्वारा शपथ दिलाई जाती है।
  • विधायी और न्यायिक शाखाओं के बीच पृथक्करण: संविधान के अनुसार, विधायी शाखा को न्यायिक शाखा से स्वतंत्र होना चाहिए। संसद के सदस्यों को न्यायिक प्रक्रिया से प्रतिरक्षा नहीं है।

शक्तियों के पृथक्करण का मूल्यांकन

शक्तियों का पृथक्करण सरकार की शक्तियों को संतुलित करने और तानाशाही को रोकने के लिए एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। भारतीय संविधान में शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था इस सिद्धांत को लागू करती है।

भारतीय संदर्भ में, शक्तियों का पृथक्करण संसदीय संप्रभुता पर नियंत्रण के रूप में कार्य करता है। संसदीय संप्रभुता का अर्थ है कि संसद को कानून बनाने की पूर्ण शक्ति है। हालांकि, शक्तियों के पृथक्करण के सिद्धांत के अनुसार, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं को संसद के कानूनों को लागू करने और उनका उल्लंघन करने वालों को दंडित करने का अधिकार है। इस प्रकार, कार्यकारी और न्यायिक शाखाओं की शक्तियां संसदीय संप्रभुता को सीमित करती हैं।

हालांकि, शक्तियों के पृथक्करण की व्यवस्था में कुछ सीमाएं भी हैं। इन सीमाओं में शामिल हैं:

  • शक्तियों का अतिक्रमण: कार्यकारी, विधायी, और न्यायिक शाखाओं में से प्रत्येक अक्सर अपनी शक्तियों का अतिक्रमण करती है। उदाहरण के लिए, कार्यकारी शाखा अक्सर कानून बनाने में भाग लेती है, और विधायी शाखा अक्सर न्यायिक कार्य करती है।
  • असमानता: कार्यकारी, विधायी, और न्यायिक शाखाओं के बीच शक्ति असमान रूप से वितरित की गई है। कार्यकारी शाखा आमतौर पर सबसे शक्तिशाली शाखा होती है, जिसके बाद विधायी शाखा और फिर न्यायिक शाखा होती है।

इन सीमाओं के बावजूद, शक्तियों का पृथक्करण भारतीय संविधान का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है जो सरकार की शक्तियों को संतुलित करने और तानाशाही को रोकने में मदद करता है।

निष्कर्ष

संविधान, शक्तियों के पृथक्करण की प्रणाली स्थापित करता है जो संसदीय संप्रभुता पर नियंत्रण के रूप में कार्य करती है। यह सुनिश्चित करता है कि सरकार की कोई भी एक शाखा अधिक प्रभावी नहीं हो सकती है और प्रत्येक शाखा विधि के शासन को बनाए रखने तथा नागरिकों के अधिकारों एवं स्वतंत्रता की रक्षा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इस प्रणाली से एक संतुलित एवं जवाबदेह सरकारी तंत्र को बढ़ावा मिलता है जिससे लोकतंत्र के सिद्धांतों और विधि के शासन को स्थापित किया जा सकता है।

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