संसदीय शासन प्रणाली में स्थायी समितियों की अहमियत

परिचय

राज्यसभा या राज्यपरिषद भारतीय संसद का उच्च सदन है, जो संघीय व्यवस्था में राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के हितों का प्रतिनिधित्त्व करती है। यह एक स्थायी सदन है जो विघटित नहीं होती है, बल्कि इसके एक तिहाई सदस्य हर दूसरे वर्ष के बाद सेवानिवृत्त हो जाते हैं।

मुख्य भाग

भूमिका और प्रासंगिकता:

कानून का निर्माण करना:

राज्यसभा लोकसभा या निचले सदन के साथ विधायी प्रक्रिया में सक्रिय भूमिका निभाती है।

यह धन विधेयक को छोड़कर, जो कि लोकसभा का विशेष विधेयक है, किसी भी विधेयक को शुरू, संशोधित या अस्वीकार कर सकती है। इसके लिये 14 दिनों के भीतर अपनी अनुशंसाओं के साथ या उसके बिना विधेयक को लोकसभा को वापस भेजना अनिवार्य है।

हालाँकि, किसी विधेयक पर दोनों सदनों के बीच गतिरोध की स्थिति में, संयुक्त बैठक बुलाई जा सकती है, जहाँ लोकसभा को अधिक संख्या और अपने बड़े आकार के कारण लाभ होता है।

इसके अलावा, राज्यसभा संवैधानिक संशोधन विधेयकों, जिसके लिये दोनों सदनों में विशेष बहुमत की आवश्यकता होती है, को शुरू या संशोधित नहीं कर सकती है।

नियंत्रण

राज्यसभा प्रश्न पूछकर, प्रस्ताव शुरू करके, संकल्प पारित करके, चर्चा की मांग आदि द्वारा कार्यपालिका पर निगरानी रखती है।

सरकार के गठन या विघटन में राज्यसभा की कोई भूमिका नहीं होती है, सरकार का गठन या विघटन केवल लोकसभा में बहुमत के समर्थन पर निर्भर करता है।

प्रतिनिधित्त्व

राज्यसभा, राष्ट्रीय विधायिका में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को प्रतिनिधित्त्व देकर भारत के संघीय सिद्धांत और विविधता को प्रदर्शित करती है।

यह अपनी संरचना में विभिन्न दलों, समूहों और हितों को समायोजित करके भारत के बहुलवाद और विविधता को भी दर्शाती है।

हालाँकि, राज्यसभा में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का प्रतिनिधित्व उनकी जनसंख्या के अनुपात में नहीं है, क्योंकि 250 निर्वाचित सदस्यों की सीमा है और प्रत्येक राज्य तथा केंद्र शासित प्रदेश के लिये न्यूनतम एक सदस्य है।

इसके अलावा, ऐतिहासिक कारणों या राजनीतिक गणनाओं के कारण कुछ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का राज्यसभा में प्रतिनिधित्व अधिक या कम है।

संसद की प्रमुख स्थायी समितियाँ

लोक लेखा समिति

यह संसद की सबसे महत्वपूर्ण एवं पुरानी वित्तीय समिति है। इसकी स्थापना 1921 में भारत सरकार अधिनियम 1919 के तहत की गई और यह अभी भी विद्यमान है। इस समिति में कुल 22 सदस्य होते हैं जिसमें से 15 सदस्य लोकसभा से तथा 7 सदस्य राज्यसभा से लिये जाते हैं।

प्राक्कलन समिति

संसद की स्थायी समितियों में यह सबसे बड़ी समिति है। इस समित का गठन सिर्फ लोकसभा के सदस्यों से किया जाता है। इसमें लोकसभा के कुल 30 सदस्य होते हैं, राज्यसभा के सदस्यों को इसमें शामिल नहीं किया जाता है।

लोक उपक्रम समिति

1963 में लंकासुंदरम समिति की सिफारिश के आधार पर इस समिति का गठन किया गया। 1964 में गठित इस समिति को लाने का श्रेय प्रथम लोकसभा अध्यक्ष श्री जीवी मावलंकर को जाता है। शुरू में इसमें 15 सदस्य होते थे। 10 लोकसभा से और 5 राज्यसभा से। 1974 में इसके सदस्यों की संख्या बढ़ाकर 22 कर दी गई जो वर्तमान समय तक प्रचलन में है।

विभागीय समितियाँ

लोकसभा की नियम समिति ने 1989 में विभागीय समितियों की स्थापना की सिफारिश की थी। इस सिफारिश के अनुसरण में तीन विषयगत समितियों कृषि समिति, पर्यावरण एवं वन समिति तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी समिति की स्थापना की गयी।

संसद की तदर्थ समितियाँ

प्रवर या संयुक्त प्रवर समिति

प्रवर समिति, तदर्थ समितियों में सबसे महत्वपूर्ण समिति है। किसी विशेष विधेयक पर विचार करने के लिए इस समिति का गठन किया जाता है। प्रवर समिति में अधिकतम 30 सदस्य तथा संयुक्त प्रवर समिति में 45 सदस्य होते हैं जिसमें लोकसभा से 30 तथा राज्यसभा से 15 सदस्य होते हैं।

किसी विशिष्ट मामलों की जांच के लिए समिति

संसद सदस्यों की मांग पर किसी विशिष्ट मामलों का जांच कर रिपोर्ट देने के अलग-अलग या संयुक्त रूप से समितियों का गठन अध्यक्ष या सभापति द्वारा किया जा सकता है।

समितियाँ कितनी प्रभावी होती हैं

1993 से पहले विधेयकों की जाँच की कोई व्यवस्थित प्रक्रिया नहीं थी और महत्वपूर्ण विधेयकों के लिए प्रवर समितियों का गठन समय-समय पर कर लिया जाता था। इन समितियों की बैठकों में अन्य मामलों और बजटीय मामलों की भी जाँच नहीं की जाती थी। हरेक विभागीय स्थायी समिति कुछेक मंत्रालयों पर ही केंद्रित रहती है और यही कारण है कि सदस्यों को संबंधित क्षेत्र का ज्ञान बढ़ाने के लिए प्रेरित किया जाता है। आम तौर पर विभागीय स्थायी समितियों की बैठकों में विधेयकों की समीक्षा करते समय अनेक विशेषज्ञों को आमंत्रित किया जाता है, लेकिन व्यापक प्रभाव वाले विधेयकों के मामले में भी हमेशा ऐसा नहीं हो पाता। उदाहरण के लिए, शिक्षा का अधिकार विधेयक, 2008 की समीक्षा करने वाली विभागीय स्थायी समिति ने भी किसी विशेषज्ञ को साक्ष्य के लिए नहीं बुलाया था। यही वह विधेयक है, जिसमें छः से चौदह वर्ष की उम्र वाले बच्चों के लिए निःशुल्क शिक्षा देने की गारंटी दी गई थी। दूसरी बात यह है कि सभी विधेयक समितियों को नहीं भेजे गए थे। जहाँ एक ओर यूपीए के अंतिम दो कार्यालयों के दौरान क्रमशः 60 और 71 प्रतिशत विधेयक समितियों को भेजे गए थे, वहीं 2017 में संसद में प्रस्तुत केवल 27 प्रतिशत विधेयक ही समितियों को भेजे गए।

वैसे तो नियम यही है कि लोकसभा के अध्यक्ष या राज्यसभा के अध्यक्ष द्वारा ही विधेयक समितियों को भेजा जाए, लेकिन सामान्यतः इसे संबंधित मंत्री की सिफारिश पर ही भेजा जाता है। राज्यसभा की संरचना कुछ ऐसी है कि कुछ मामलों में तो इससे संवीक्षा या छानबीन करने में मदद ही मिलती है। मौजूदा सरकार राज्यसभा में अल्पमत में है। ऐसे मौके कई बार आए हैं जब लोकसभा में पारित हो जाने के बाद भी राज्यसभा ने प्रवर समिति गठित की है ताकि संबंधित विधेयकों की बारीकी से जाँच की जा सके। इतना ही नहीं, संविधान में संशोधन के लिए अपेक्षित वस्तु व सेवा कर जैसा महत्वपूर्ण विधेयक भी विभागीय स्थायी समिति को भेजे बिना ही लोकसभा द्वारा पारित कर दिया गया था। राज्यसभा द्वारा प्रवर समिति गठित की गई और उसकी अनेक सिफारिशों को विधेयक में शामिल करने के बाद ही विधेयक पारित किया जा सका। तीसरी बात यह है कि इन समितियों की सिफारिशें मानना भी बाध्यकारी नहीं होता। सरकार या कोई अन्य सदस्य संबंधित संशोधनों को संसद के पटल पर प्रस्तुत करता है और फिर सदन द्वारा मतदान करके इसे पारित किया जाता है। इसके पीछे मंशा यही है कि समितियाँ संसद का ही एक छोटा भाग होती हैं, जिनका काम है संबंधित मुद्दे की जाँच करके सिफारिशें देना। उसके बाद पूरे सदन को यह अधिकार है और उसकी जिम्मेदारी भी है कि वह इस संबंध में अंतिम निर्णय ले। यूपीए सरकार की पाँच वर्ष की कालावधि में सरकार ने समितियों की 54 प्रतिशत सिफारिशें स्वीकार की थीं और विभागीय स्थायी समिति ने 13 प्रतिशत मामलों में संतोष प्रकट किया था, 21 प्रतिशत मामलों में उनकी प्रतिक्रिया को निरस्त कर दिया था और 12 प्रतिशत मामलों में उन्हें प्रतिक्रियाएँ ही नहीं मिलीं।

प्रतिनिधित्त्व में वृद्धि

राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों का उनकी जनसंख्या के अनुपात में निष्पक्ष और न्यायसंगत प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने के लिये राज्यसभा में सुधार किया जाना चाहिये।

इसमें महिलाओं, अल्पसंख्यकों, पिछड़े वर्गों आदि का पर्याप्त प्रतिनिधित्व भी सुनिश्चित करना चाहिये।

इसे राजनीतिक संबद्धता या हितों के टकराव वाले व्यक्तियों के नामांकन से भी बचना चाहिये।

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